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योगसे बनता है। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा ग्रहण करता है। इन निर्वचनों में यास्कने मात्र धातुकी कल्पनाकी है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार इसे गृ निगरणे या गृ स्तुतौ या ग्रह उपादाने धातु + लुङ् मध्यम पुरुष एक वचन का रूप माना जायगा।
(५६) अमूर :- इसका अर्थ होता है ज्ञानी। निरुक्तके अनुसार-अमूरः अमूढ़:२२ अर्थात् अमूरः शब्द अमूढः का वाचकहै। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा जो मूढ़ या मूर्ख नहीं है। अमूरः शब्दमें न-अ + मूर: अमूर: है। र का ढ में स्वस्थानीय परिवर्तन हुआ है। लगता है वैदिक संस्कृत में र ध्वनि ढ में विकसित हुई है। अमूढ़:का ही अमूरः शब्द लगता है तत्कालीन क्षेत्रीय भाषाकी ध्वनियोंसे प्रभावित हो। शिक्षा ग्रन्थोंसे यह पता चलता है कि सम्प्रदाय भेदसे वर्णोंका उच्चारण तथा परिवर्तन होता रहा है। ष का ख, य का ज, र का ल ड का ल उच्चारण प्राय: हो जाता है उसी प्रकार ढ का र भी कालान्तरमें हो गया होगा। व्याकरणके अनुसार अ + मुह वैचित्ये + क्त प्रत्यय कर अमूढ़: अमूर: शब्द बनाया जा सकता है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे ध्वनिपरिवर्तन माना जायगा।
(५७) शशमानः :- इसका अर्थ होता है- स्तुति करता हुआ। निरुक्तके अनुसार शशमानः शंसमानः२२ अर्थात् शशमान: शब्द शंस् स्तुतौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है। यह शानच् प्रत्ययान्त शब्द है। यास्कने इसका धातु प्रत्यय स्पष्ट नहीं किया है। शंस् धातुसे निष्पन्न मानने पर यह निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिसे उपयुक्त है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार शंस् स्तुतौ धातुसे शानच् प्रत्यय कर-शंसमान-शशमानः शब्द बनाया जा सकता है।
(५८) कृपा :- यह दयाका वाचक है। निरुक्तके अनुसार १- कृपा कृपतेर्वा२२ अर्थात् यह शब्द कृप् कृपायां गतौ धातुसे निष्पन्न होता है दयाका योग होने के कारण कृपा दयाका वाचक है। २- कल्पतेर्वा२२ अर्थात् यह शब्द क्लुप् सामर्थ्य धातुसे निष्पन्न हुआ है। प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिसे उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। द्वितीय निर्वचनमें ध्वनिगत औदासिन्य है। अर्थात्मक दृष्टिसे द्वितीय निर्वचन भी उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार कृप् कृपायां गतौ धातुसे क्विप् प्रत्यय कर कृपा शब्द बनाया जा सकता है।
३५१:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क