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लक्ष्मण स्वरूप इसका अर्थ करते हैं. सोमपात्र।१२९ सोम पात्र में अर्थ सादृश्य है क्योंकि इसमें सोमरस निचोड़कर रखे जाते हैं। अत: यह अर्थ भी संभव है। दुर्गाचार्य इसका अर्थ धमनी ही करते हैं। वेदों में एवं श्रौत सूत्रोंमें गल्दाका प्रयोग धमनीके अर्थमें ही हुआ है|१३०
(१६२) जल्हव :- इसका अर्थ होता है ज्वलन रहित। निरुक्तके अनुसार जल्हव : ज्वलनेन हीन:१२५ अर्थात् यह शब्द ज्वल् + हा परित्यागे धातुके योगेसे निष्पन्न हआ है। इस निर्वचनमें ध्वन्यात्मक औदासिन्य है। अर्थात्मक आधार से यह युक्त है। लौकिक संस्कृतमें इस शब्दका प्रयोग उक्त अर्थमें प्रायः नहीं देखा जाता। दुर्गाचार्य ने इसका अर्थ किया है- अज्वनशीला: अनाहिताग्नयो वा।
(१६३) बकुर :- यह भास्कर, भयंकर तथा भासमान गति वालाका वाचक है। निरुक्तके अनुसार बकुरो भास्करो भयंकरो भासमानो द्रवतीति वा१२५ अर्थात् बकुर शब्द भास्कर से बना है- भास्कर-भकर-बकर (वर्ण लोप वर्ण परिवर्तन आदि) या यह शब्द भयंकर से निःसृत है भयंकर-भंकर-भंकुर-बकुरः या यह शब्द भास् + द्रु गतौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है-मास् +p = भादुर - भाकुर-बकुरः। सभी निर्वचनोंका अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। ध्वन्यात्मक आधार किसी भी निर्वचनका पूर्ण संगत नही है। लौकिक संस्कृतमें इस शब्दका प्रयोग उक्त अर्थमें प्राय: नहीं देखा जाता। वेदोंमें इस शब्दका प्रयोग ज्योति एवं जलके रूपमें देखा जाता है|१३१
(१६४) वृक :- इसका अर्थ होता है हल। निरुक्तके अनुसार-वृको विकर्तनात्१२५ अर्थात् वह जमीन को उखाड़ता है इसलिए वृक कहलाता है। इसके अनुसार वृक शब्दमें वि + कृत् धातुका योग है। कृत् का अर्थ होता है काटना। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण संगत नहीं है। यह शब्द अनेकार्थक है। इसका निर्वचन अन्य अर्थों में पूर्व भी हो चुका है। कुत्ते एवं भेड़िये को भी वृक् कहा जाता है। काटनेके गुण दोनोंमें ही विद्यमान हैं।
(१६५) लांगलम् :- इसका अर्थ होता है-हला निरुक्तके अनुसार १- लांगलं लंगते:१२५ अर्थात् यह शब्द लग् गतौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि इससे खेत जोता जाता है। या खेतमें यह गतिमान होता है।र-लांगलवद्वा१२५अर्थात् यह पूंछ के ऐसा होता है इसलिए इसे लांगल कहा जाता है।प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्तहै।भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगतमाना जायगा।द्वितीय
३७९:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क