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है। निरुक्तके अनुसार-बत इति निपातः खेदानुकम्पयो: बतो बलादतीतो भवति।१२५ अर्थात् वत: का अर्थ होता है बल से रहित। वलादतीतः से वत: माना गया है जो अर्थात्मक आधार रखता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार संगत नहीं है। खेद आदि के अर्थमें यह निपात लौकिक संस्कृतमें भी प्रयुक्त होता है।१३९ यास्क ने बत को निपात माना है तथा संज्ञाके अर्थमें भी इसका निर्वचन किया है। बल से रहित बत: यमके विशेषणके रूप में प्रयुक्त है।१४० वही बल निपात के रूप में भी प्रयुक्त . है जो खेद का सूचक है। कुछ संस्करणमें बलातीत से भी वत: शब्द माना गया है। बलका आद्यक्षर व तथा अतीतका अन्तिम अक्षर त मिलकर लगता है वत हो गया है।
(१७३) लिबुजा :- यह लताका वाचक है जो काफी लतरती है तथा वृक्षों पर चढ़ जाती है या वृक्षों से सम्पृक्त रहती है। निरुक्तके अनुसार-लिजुबा व्रततिर्भवति। लीयते विभजन्तीतिवा१२५ अर्थात् लिबुजा ब्रतति का पर्याय है क्योंकि वह वृक्ष में लीन हो जाती है, वृक्ष से लिपट जाती है या वृक्ष की सेवा करती है। इस निर्वचनके अनुसार इस शब्दमें ली+ वि +भज् सेवायां धातुका योग है. ली +वि + भज् = लिविजा- लिवुजा। इसका अर्थात्मक आधार संगत है। इस निर्वचनमें ध्वन्यात्मक शैथिल्य है। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्राय: नहीं देखा जाता।
(१७४) व्रतति :- इसका अर्थ लता होता है। निरुक्तके अनुसार - व्रततिर्वरणाच्च सयनाच्च तननाच्च१२५ अर्थात् यह वृक्षको वरण करती है, और वृक्षको बांध लेती है तथा वृक्ष पर फैली रहती है। अतः व्रतति कहलाती है। इसके अनुसार इस शब्दमें वृ आवरणे सि वन्धने तथा तन विस्तारे धातुका योग है। यास्क ने इस शब्दमें तीनों धातुओंका योग माना है। ध्वन्यात्मक आधार पर सि बन्धने धातु का योग पूर्ण रूपमें अस्पष्ट है। अर्थात्मक आधार से यह निर्वचन युक्त है। ध्वन्यात्मक आधार पर वृ धातु या तन् धातुसे इसका निर्वचन माना जा सकता है। व्याकरणके अनुसार व्रत् + तति: कर व्रततिः शब्द बनाया जा सकता है।
(१७५) वाताप्यम् :- यह उदकका वाचक है। निरुक्तके अनुसार वाताप्यमुदकं भवति। वात एतदाप्यायति१२५ अर्थात् वायु इसे शीतल करती है, बढ़ाती है, आप्यायित करती है। इसके अनुसार इस शब्दमें वात + प्य वृद्धौ धातुका योग है। वात + आ+प्य = वाताप्यम्। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जाएगा।
३८२:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क