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(१५४) ऋचीसम :- इसका अर्थ होता है- ऋचाओंके समान। निरुक्त्तके अनुसार ऋचीसम: ऋचासम:१३५ अर्थात् अर्च् अर्चने धातुसे वर्ण परिवर्तन एवं सम्प्रसारणके द्वारा ऋक् (अर्चनामृक) ऋचासमः ऋचीसमः। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा।
(१५५) अनर्शरातिम् :- इसका अर्थ होता है उत्तमदान देने वाला, जिसका दान पवित्र हो। निरुक्तके अनुसार- अनर्शरातिम् अनश्लीलदानम्१२५ अर्थात् अनर्शरातिम् शब्दमें दो पदखण्ड हैं। अनर्श अनश्लील का वाचक है तथा उत्तर पदस्थ रातिम् शब्द है, जिसका अर्थ होता है दान। नञ्- अन + अर्श +रातिम्= अनर्शरातिम् इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा।
(१५६) अश्लीलम् :- इसका अर्थ होता है- पाप, अशोभन। निरुक्तके अनुसार अश्लीलं पापकमश्रीमद्विषमम्१२५ अर्थात् अश्लील पापका वाचक है तथा अश्रीमद् ही अश्लील है। अश्रीमत् अर्थात् जो श्रीमत् नहीं है। फलत: वह अश्लील विषम है या कष्टदायक है। इसके अनुसार इस शब्दमें नञ् का अ +श्री + ल = अश्रील = अश्लील है। दुर्गाचार्य भी श्रियं लक्ष्मी रातीति श्रीरम् तन्न भवतीति अश्रीरम्। रलयोरैक्यात् अश्लीलम्, मानते हैं।१२६ अर्थात् श्री से युक्त को श्रीर तथा उसके अभाव को अश्रीर कहा जाता है। र ल की एकता से ही अश्रीर शब्द अश्लील बन गया है। अ - श्री + र = अश्रीर- अश्लील। लौकिक संस्कृतमें अश्लील ग्राम्य अर्थात् लज्जाजनक वचनको कहा जाता है जो अश्रीर का ही विकसित रूप है। र ध्वनि ही ल में विकसित हुई है इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। निरुक्तके कुछ संस्करणोंमें अश्रिमत् विषमम् कहा गया है।१२७ इसके अनुसार अश्रि + मत् का योग इसमें माना जायगा अर्थात् ग्रहण नहीं करने योग्य कार्य। श्रि सेवायाम् धातु से न-अ+ श्रि = अश्रिमत् = अश्रिमत् - अश्लीलम्। यास्कने यहां मतुप् के अर्थमें ही र प्रत्यय किया है। व्याकरणके अनुसार न + श्रियं लाति न +श्री ला + क प्रत्यय कर अश्लीलः शब्द बनाया जायगा।१२८
(१५७)अनर्वा:- यह स्वतंत्रका वाचक है। निरुक्तके अनुसार- अनर्वाऽप्रत्यू तोऽन्यस्मिन्१२५ अर्थात् जो दूसरों पर आश्रित न हो। इसके अनुसार इस शब्दमें नम्- अन् + ऋ गतौ + वनिप् प्रत्यय का योग है। ऋ- अर्- अन् + अर् + वन् =
३७७:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क