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व्याकरणके अनुसार कृ + क +उ: प्रत्यय कर कुरू: शब्द बनाया जा सकता है।
(१५०) क्रूरम् :- इसका अर्थ है-पापी। निरुक्तके अनुसार क्रूर शब्द भी कृती छेदने धातुके योगसे निष्पन्न होता है- क्रूरमित्यप्यस्य भवति८७ कृत्-क्रूरम्। इसमें ऋ का ऊध्वनि में विकास माना जायगा। इस निर्वचन में ध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त है। अर्थात्मक आधार भी इसका संगत है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार कृती छेदने धातु का क्रू आदेश +रक् प्रत्यय कर क्रूर: शब्द बनाया जा सकता है।१२३
(१५१) कुलम् :- इसका अर्थ वंश होता है। निरुक्त के अनुसार कुलं कुष्णाते : विकुषितं भवति८७ अर्थात् यह शब्द कुष् निष्कर्षे धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह विस्तीर्ण होता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त नहीं है। इसका अर्थात्मक महत्व है। भाषा विज्ञानके अनुसार कुल धातुसे अ प्रत्यय कर इसे सिद्ध किया जा सकता है। व्याकरणके अनुसार कुल संस्त्याने धातुसे कः प्रत्यय कर कुलम् शब्द बनाया जा सकता है।१२४
(१५२) जिन्वति :- इसका अर्थ होता है- प्रीति करता है। निरुक्तके अनुसारजिन्वतिः प्रीतिकर्मा८७ अर्थात् यह शब्द प्रीणनार्थक जिवि धातुके योगसे निष्पन्न होता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। यास्क यहां घात्वर्थ को स्पष्ट करना ही अपना अभीष्ट मानते हैं।
(१५३) अमत्र :- इसकी व्याख्या पूर्व में की जा चुकी है। पंचम अध्याय इसके लिए द्रष्टव्य है। षष्ठ अध्यायके पंचम पादमें भी अमत्रका निर्वचन प्राप्त होता है। इसका अर्थ महान होता है- अमत्रोऽमात्रो महान भवत्यभ्यमितोवा१२५ अर्थात् अमात्र मात्रासे रहित को कहा जाता है जो महान् होता है। वह किसीसे पराभूत नहीं होता।: पंचम अध्ययमें अमत्रका अर्थ पात्र किया गया है। पात्र अर्थकी अभिव्यक्तिके लिए वहां इसका निर्वचन भी करते हैं जो महान् के अर्थ में किए गए निर्वचन से भिन्न है। अमा अस्मिन्नदन्ति अर्थात् अपरिमित इसपात्र में खाते है। इसके अनुसार अमा+ अद् भक्षणे धातुका योग है। महान् के अर्थमें किए गए निर्वचनके अनुसार अभि + मिञ् धातुका योग माना जायगा। पात्रके अर्थमें अमत्र का निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त है। शेष का अर्थात्मक महत्व है।
३७६:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क