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अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। शेष निर्वचनोंका अर्थात्मक महत्व है। द्वितीय निर्वचन गत्यात्मक आधार रखता है। तृतीय निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्त है। व्याकरण के अनुसार शक् धातुसे अट्११८ प्रत्यय कर शकट शब्द बनाया जा सकता है।
(१४२) चोष्कूयमाण :- इसका अर्थ होता है देता हुआ। यह शब्द अनवगत संस्कारका है। दुर्गाचार्यके अनुसार इसका पूर्व खण्ड सुबन्त तथा उत्तर खण्ड तिङन्त है। इसमें धातु अस्पष्ट है। ११९ प्रकरणके अनुसार इसका अर्थ लगाया जाता है - देता हुआ। इस शब्दमें स्कूञ् दाने धातुका योग माना जा सकता है। इसे निर्वचन प्रक्रिया एवं भाषा विज्ञानके अनुसार अपूर्ण निर्वचन माना जायगा। स्कूञ् द्वित्व शानच् कर चोष्कूयमाणः शब्द बनाया जा सकता है।
(१४३) चोष्कूयते : - इसका अर्थ होता है नष्ट कर डालता है। निरुक्तके अनुसार चोष्कूयतेश्चर्करीतवृत्तम् ८७ अर्थात् यह स्कूञ् धातुका यङन्त रूप है। यहां स्कूञ् धातु नाश अर्थमें प्रयुक्त है। इस निर्वचनका धातु अस्पष्ट है। यहां धात्वर्थ परिवर्तित नजर आता है। निर्वचन प्रक्रिया एवं भाषा विज्ञानके अनुसार इसे अपूर्ण निर्वचन माना जायगा स्कूञ् धातुसे चोष्कूयते शब्द मानने में ध्वन्यात्मक आधार संगत होता है। यास्क ने द्वित्वका संकेत स्पष्ट रूपमें कर दिया है।
(१४४) सुमत् :- यह स्वयं का वाचक है। निरुक्तके अनुसार- सुमत् स्वयमित्यर्थः८७ अर्थात् सुमतका अर्थ स्वयं होता है। यास्कने इस शब्दका निर्वचन नहीं कर मात्र अर्थ स्पष्ट कर दिया है। निर्वचन प्रक्रिया एवं भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त निर्वचन नहीं माना जायगा ।
(१४५) दिविष्टिषु :- इसका अर्थ होता है- स्वर्ग की प्राप्ति जिन अनुष्ठानों से होती है उनमें। यह सप्तम्यन्त पद है। निरुक्तके अनुसार- दिविष्टिषु दिव एषणेषु ८७ अर्थात् दिविष्टि शब्द दिव + इष् धातुके योगसे निष्पन्न होता है- दिव + इष् + क्तिन्= दिविष्टि। दिवः स्वर्गस्य इष्टिः एषणम् = दिविष्टि । सप्तमी बहुबचन में दिविष्टिषु पद निष्पन्न होता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा ।
(१४६) स्थूर :- यह अत्यधिक बहुत का वाचक है। निरुक्तके अनुसारसमाश्रितमात्रो महान्भवति८७ अर्थात् क्योंकि यह सभी ओर से मिश्रित होकर महान्
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३७४ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क