________________
(१३३) मृमि :- इसका अर्थ होता है भ्रमणशील। निरुक्तके अनुसार- भृमि: भ्राम्यते:८७ अर्थात् इस शब्दमें भ्रम् भ्रमणे धातुका योग है। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा भ्रमण करने वाला या भ्रमण कराने वाला। वेद में यह अग्नि के लिए प्रयुक्त हुआ है जो अग्निका विशेषण है।१११ इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार भ्रम् भ्रमणे धातुसे इन् प्रत्यय कर भृमिः शब्द बनाया जा सकता है। पृषोदरादित्वात् भृमिः।
(१३४) विष्पित :- इसका अर्थ होता है- विस्तीर्ण। निरुक्तके अनुसार विष्पितो विप्राप्तः८७ अर्थात् विविध प्राप्त।११२ इसके अनुसार इस शब्द में वि + पितः शब्द खण्ड है, पितः प्राप्तःका वाचक है। वि +पा +इण् गतौ धातुका योग माना जा सकता है। यह निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टिसे अपूर्ण है। इसका अर्थात्मक महत्त्व है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत नहीं माना जा सकता।
(१३५) तुरीपम् :- इसका अर्थ होता है जल्द प्राप्त होने वाला जल। निरुक्तके अनुसार-तुरीपम तूर्णापि।८७ अर्थात् यह शब्द तुर् त्वरणे धातुके योगसे निष्पन्न हुआ है। क्योंकि यह शीघ्र प्रवाह वाला होता है तुर् + ई प् =तुरीपम् या त्वर् + आप्-त्वरीपम् - तुरीपम्। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। अथर्ववेदमें प्रयुक्त तुरीप शब्द नवजात शिशुका वाचक है।११४ ग्रासमैनके अनुसार यह शब्द द्रव या वीर्यका वाचक है।११३ स्वामी ब्रह्ममनि भी इसका अर्थ वीर्य करते हैं। क्योंकि वीर्य सम्पूर्ण शरीरमें व्याप्त रहता है।११४ दुर्गाचार्य इसका अर्थ जल ही मानते हैं।११५ व्याकरणके अनुसार तूर्ण+आप+क=(पृषोदरादित्वात्) तुरीपम् शब्द बनायाजा सकता है।
(१३६) रास्पिन :- इसका अर्थ होता है अधिक जल या अधिक-बोलने वाला वक्ता। निरुक्तके अनुसार रास्पिनो रास्पी रपतेर्वा सरतेर्वा८७ अर्थात् रास्पी शब्द रप् व्यक्तायां वाची या रस् शब्दे धातुके योगसे निष्पन्न होता है। जल वर्षणके समय शब्द होता है तथा वक्ता शब्द करने वाला होता है। रप्-रास्पी, एस-रास्पी। द्वितीय निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा .विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। अर्थात्मक आधार प्रथम निर्वचनका भी उपयुक्त है। उक्त अर्थमें इस शब्दका प्रयोग संस्कृतमें प्राय: नहीं देखा जाता।
(१३७) ऋअति :- इसका अर्थ होता है- सन्नाना। निरुक्तके अनुसार-ऋअति:
३७२ :व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क