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प्रसाधनकर्मा८७ अर्थात् यह शब्द ऋञ् अलंकरणे धातुके योगसे निष्पन्न होता है। ऋञ् अलंकरणे धातु वैदिक धातु है ऋ+ तिप्= ऋअति। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा।
(१३८) ऋजुनीति :- यह सरल नीतिका वाचक है। निरुक्तके अनुसार ऋजु शब्द भी ऋञ् धातुसे ही निष्पन्न होता है।११६ इसके अनुसार इसका अर्थ होगा अलंकृत नीति। ऋजु+ नीति- ऋजुनीति। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायमा। व्याकरणके अनुसार अर्ज अर्जने धातुसे सम्प्रसारण कर अर्ज-ऋज़ +कु प्रत्यय कर ऋज +नीति= ऋजुनीति शब्द बनाया जा सकता है।
(१३९) प्रतद्वसू :- इसका अर्थ होता है. जिसने धन प्राप्त कर लिया है। निरुक्तके अनुसार प्रतद्वसू प्राप्तवसू८७ अर्थात् प्राप्तं वसु धनं येन सः प्राप्त वसुः। द्विवचन में प्राप्त वसू-प्रतद्वसू प्राप्त- प्रतद+ वसू = प्रतद्वसू। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण संगत नहीं है। यह अर्थात्मक महत्त्व रखता है। भाषा विज्ञानके अनुसार भी इसे पूर्ण उपयुक्त नहीं माना जायगा।
(१४०) हिनोत :- इसका अर्थ है भेजो, प्रेषित करो। निरुक्त्तके अनुसार हिनोत प्रहिणुत८७ अर्थात् यह शब्द हि गतौ वृद्धौ च धातुके योगसे निष्पन्न होता है। उ का औ गुण होकर हिनोत हो गया है। हिनुत हिनोत। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। यह वैदिक प्रयोग है। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्राय: नहीं देखा जाता।
(१४१) शकटम् :- इसका अर्थ होता है बैलगाड़ी। निरुक्तके अनुसार -१शंकटं शकृदितं भवति८७ अर्थात् यह गोवर से लिप्त रहता है११७ इसके अनुसार इस शब्दमें शकृत। इतका योग है। शकृत् गोमयका वाचक है तथा इतः इण् गतौके योग से निष्पन्न रूपा शकृत+ इत= शक् + इत = शकत = शकटम्। २- शनकैस्तकतीति वा८७ अर्थात् यह धीरे-धीरे चलता है। इसके अनुसार इस शब्द में शनैः + तक् गतौ, धातुका योग है- शनै: +तक् = शन् +तक् = शन्+कत् (वर्णविपर्यय)श+कत= शकट। ३. शब्देन तकनीतिवा८७ अर्थात् वह शब्दके साथ चलता है या इसके चलने पर शब्द होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें शब्द + तक् धातु का योग है- शब्द + तक श+ तक -श + कत- (वर्ण विपर्यय) शकत= शंकट। प्रथम निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं
३७३ :व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क