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ग ध्वनिका ज में परिर्वतन कर जरूथम् माना गया है।९५ जरूथम् शब्दको जृ धातुसे ही निष्पन्न मानना अधिक संगत होगा। वैदिक युगमें जृ धातु शब्दे, स्तुतौ च रहा होगा। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी गृ धातुसे इसका निर्वचन मानना ज्यादा संगत होगा। निर्वचनकी प्रक्रियाके अनुसार यह निर्वचन उपयुक्त है। गृ धातुसे जरूथम् शब्द मानने पर ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक महत्त्व रहता है। व्याकरणके अनुसार जृ धातुसे ऊथन् प्रत्यय कर जरूथम् शब्द बनाया जा सकता है।
(१२४) कुलिश :- यह वज्रका वाचक है। निरुक्तके अनुसार-कुलिश इति वज्र नाम कूल शातनो भवति८७ अर्थात् कुलिश वज्रको कहते हैं। यह नदीके किनारों की भांति मेघ या पर्वतों को फाड़ने वाला होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें कूल + शद् शातने धातुका योग है-कूल + शद् - कूलशः -कूलिशः। इसका अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। इस निर्वचनमें ध्वन्यात्मक औदासिन्य है। व्याकरणके अनुसार कुलि + शीङडः प्रत्यय कर कुलिशः शब्द बनाया जा सकता है।९९ कुलौ शेते। या कुलि +शो तनूकरणे +क:९२ प्रत्यय कर कुलिशः शब्द बनाया जा सकता है।
(१२५) स्कन्ध :- इसका अर्थ होता है पेड़ की शाखा। निरुक्तके अनुसार स्कन्धो वृक्षस्य समास्कन्नो भवति८७ अर्थात् यह वृक्षमें लगा होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें स्कन्द् धातुका योग है। स्कन्धका अर्थ कन्धा भी होता है। अयमपीतरः स्कन्ध एतस्मादेव आस्कन्नं काये८७ अर्थात् कन्धावाचक स्कन्ध भी इसी निर्वचनसे माना जायगा क्योंकि वह शरीर में लगा होता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। स्कन्ध का कन्धा अर्थ सादृश्यके आधार पर हुआ है। स्कन्दसे स्कन्ध में द वर्ण का ध हो गया है जो अल्पप्राणका महाप्राण में वर्ण परिवर्तन है। मद् से मधु९९ तथा स्यन्द धातुसे सिन्धु१०० शब्दमें भी द का ध देखा जाता है। व्याकरणके अनुसार स्कन्द धातुसे घ९८ प्रत्यय कर स्कन्धः शब्द बनाया जा सकता है।
(१२६) तुअ :- इसका अर्थ होता है दान। निरुक्तके अनुसार तुअस्तुञ्जतेर्दानकर्मण:८७ अर्थात् तुअ शब्द दानार्थक तुजि धातुसे निष्पन्न होता है। दानार्थक तुजि धातु निघण्टु पठित है। दान कर्मसे युक्त होनेके कारण तुअः शब्द कहलाता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। लौकिक संस्कृतमें इस शब्दका प्रयोग
३६९:व्युत्पत्नि विज्ञान और आचार्य यास्क