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अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार सु + मनिन्- सोमन्-सोमानम् शब्द बनाया जा सकता है।
(६७) औशिज :- इसका अर्थ होता है उशिक् के पुत्र। निरुक्तमें उशिजः पुत्र:५२ औशिज: कह कर स्पष्ट किया गया है। यह तद्धितान्त शब्द है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा।
(६८) उशिक :- यह एक संज्ञापद है। उशिक् व्यक्ति विशेषका नाम है। निरुक्त के अनुसार उशिग्वष्टे: कान्ति कर्मण:५२ अर्थात् उशिक् शब्द वश् कान्तौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि वे उशिक् कान्तिमान् हैं। वश् धातु स्थित व का उ सम्प्रसारण के द्वारा हो गया है-वश्-उश्-उशिका इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा।
(६९) अनवायम् :- इसका अर्थ होता है अवयव रहित, पूर्ण। निरुक्तके अनुसार १- अनवायम् अनवयवम्५२ अर्थात् इस शब्दमें नञ्-अन् +अवाय शब्दका योग है। अवाय अवयव का वाचक है। २- यदन्ये न व्यवेयुरद्वेषस इतिवा५२ अर्थात् दोषहीन दूसरे व्यक्ति भी जिसे शान्त न कर सकें। इसके अनुसार इसमें अव +वि + अव एवं इण् धातुका योग है। यह अनेकार्थक एवं अनवगत संस्कारका है। प्रथम निर्वचन अन् +अव् + इ का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। द्वितीय निर्वचनका मात्र अर्थात्मक महत्त्व है। व्याकरणके अनुसार अन् + अ + इण् गतौ + घञ् प्रत्यय कर अनवाय: अनवायम् शब्द बनाया जा सकता है।
(७०) अघम् :- यह पापका वाचक है। निरुक्तके अनुसार अघं हन्तें: निर्हसितोपसर्ग:५२ अर्थात् यह शब्द हन् धातुके योगसे निष्पन्न होता है। इस शब्द में उपसर्ग आ ह्रसित होकर आया है आ-अ+ हन् = अहन्-इ का घ वर्ण परिवर्तन-अघम्। आहन्तीति५२ अर्थात् इसके अनुसार इस शब्दमें आ+ हन् धातुकां योग है। आ + हन्-अघम्। इस निर्वचनके अनुसार इस शब्दका अर्थ होगा जो आघात पहुंचाता है। यह निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। भाषा विज्ञानके अनुसार भी ह का घ होमा सर्वथा संगत है।घन् ही हन् का प्राचीन रूप है।इसी प्रकार यास्कने घनकी व्युत्पत्ति हन्५३से ओघकी वह५४से तथा मेघकी मिह५५सेचने धातुसे की है।व्याकरणके अनुसार अघिगतौ
३५४:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क