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है। अम् धातु रोगका वाचक है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार अम् रोगे धातुसे वन् +टाप् प्रत्यय कर अमीवा शब्द बनाया जा सकता है।
(८२) क्रिमि :- यह कीटाणु, रोगाणुका वाचक है। निरुक्तके अनुसार क्रिमि क्रव्ये मेथति५२ अर्थात् वह मांसमें प्रेम रखती है। इसके अनुसार इस शब्दमें क्रव्य + मिद् धातुका योग है। क्रव्यका क्र तथा मिद् धातुका मि -क्रमिः क्रिमिः। २- क्रमतेर्वा सरण कर्मण:५२ अर्थात् यह शब्द सरणार्थक क्रम् धातुके योगसे निष्पन्न होता है। क्योंकि हिंसाके लिए यह क्रमण करती है क्रम् - क्रिमिः। ३- क्रामतेर्वा५२ अर्थात् यह शब्द धावनार्थक क्राम् धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि हिंसा के लिए वह दौड़ती है। यास्का द्वितीय निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। शेष निर्वचनोंके अर्थात्मक महत्त्व हैं। यह निर्वचन धातुज सिद्धान्त पर आधारित है। व्याकरणके अनुसार क्रम् पादविक्षेपे धातुसे इन् प्रत्यय कर क्रिमिः शब्द बनाया जा सकता है।६९
(८३) दुरितम् :- इसका अर्थ होता है-पाप, दुष्कर्म। निरुक्तके अनुसारदुरितम् दुर्गतिगमनम्५२ अर्थात् दुर्गति देने वाले कर्म, दुर्गतियुक्त कर्म। इसके अनुसार इस शब्दमें दुः+ इण् गतौ धातुका योग है। अपने निर्वचनमें यास्क धातु, प्रत्ययको स्पष्ट नहीं करते। गमन अर्थके द्वारा ही इण् धातुका संकेत प्राप्त हो जाता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार दु: + इण गतौ+ क्त७० प्रत्यय कर दुरितम् शब्द बनाया जा सकता है। लौकिक संस्कृतमें भी इस शब्दका प्रयोग उक्त अर्थमें होता है।७१
(८४) अप्वा :- यह रोग या भयका वाचक है। निरुक्तके अनुसास्अप्वा पदेनया विद्धौऽपवीयते। व्याधि, भयंवा५२ अर्थात् यह शब्द रोग या भय का पर्याय है क्योंकि इससे विद्ध होकर मनुष्य नष्ट हो जाते हैं, प्राणों से पृथक् हो जाते हैं। इस निर्वचनके अनुसार इस शब्दमें अप +वी गतिव्याप्तिप्रजननकान्त्यसन खादनेषु धातुका योग है। वी धातु गति, व्याप्ति, प्रजनन, कान्ति, पाना, फेंकना, सुन्दर होना, चाहना, खाना आदि अर्थोंका द्योनक है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा।
(८५) अमति :- इसका अर्थ होता है आत्म नियंत्रक बुद्धि। निरुक्तके अनुसार
३५८:व्युत्पनि विज्ञान और आचार्य यास्क