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उपयुक्त है! भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार-दुर् + वन् सेवायां +इन् प्रत्यय कर तुर्वणिः शब्द बनाया जा सकता है।
(९६) गिर्वणा :- यह देवता का वाचक है। निरुक्तके अनुसार- गिर्वणा : देवो भवति। गीर्भिरेवं वनयन्ति५२ अर्थात् वाणियों से स्तुतियों से इनकी सेवा, स्तुति की जाती है। वाणीके द्वारा लोग इनका भजन करते हैं।७९ इनके अनुसार इस शब्दमें गी:+ वन सेवायां संभक्तौ धातुका योग है। गिर्वणा : में गी: +वनस् स्वतंत्र प्रकृति मानी जाएगी- गी:+ वनस् = गिर्वनस्- गिर्वणा:। डा. वर्मा वनस् को स्वतंत्र प्रकृति नहीं मानते८० जबकि पेशस्८१ तपस्८२ आदि शब्द स्वतंत्र सकारान्त प्रकृतिके रूपमें निरुक्तमें प्राप्त होते हैं। यास्कके उपर्युक्त निर्वचनोंका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार गी: +वन्+ असुन् प्रत्यय कर गिर्वणा : शब्द बनाया जा सकता है।
(९७) असूर्ते :- इसका अर्थ होता है वायुके द्वारा प्रेरित (मेघ या अन्य मरुद्गण) निरुक्तके अनुसार-असूर्ते असुसमीरिता५२ अर्थात् इस शब्द में असु+ ईर् गतौ धातुका योग है। असु प्राणका वाचक है इससे प्रेरित को असूर्त कहा जायगा।८३ असूर्ते सप्तमीका एक वचन रूप है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार असु+ ईर् गतौ + क्त प्रत्यय (इड्भाव) कर असूर्त- असूर्ते शब्द बनाया जा सकता है।
(९८) सूर्ते :- यह विस्तीर्णका वाचक है। निरुक्तके अनुसार सूर्ते-सुसमीरिते५२ अर्थात् यह प्रथमाके अर्थमें प्रयुक्त सप्तम्यन्त पद है। इस शब्दमें सु + ईर् गतौ धातुका योग है। सु + ई+ क्त + सप्तमी एकवचन-सूर्ते। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्राय: नहीं देखा जाता। व्याकरणके अनुसार सु + ईर गतौ + क्त प्रत्यय कर सूर्त-सूर्ते शब्द बनाया जा सकता है। . (९९) अम्यक् :- इसका अर्थ होता है आत्मज्ञान प्राप्त कराने वाली विद्या,
शत्रुओं की ओर फेका गया अस्त्र विशेष। निरुक्तके अनुसार १-अम्यक् अमाक्तेति वा५२अर्थात् जिससे अपनेको अंचित करता है।इसके अनुसार इस शब्दमें अमा +अञ्च पूजायां गतौ धातुका योग है-अमा +अञ्च सम्यक्। अञ्च का गति अर्थ माननेपर इसका अर्थ होगा मेरी ओर फेंकी गयी। २. अम्यक्तेति वा५२ अर्थात् चारो ओर फेंकी गयी।
३६२ व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क