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अनुसार पत् या पा धातुसे पाथः शब्द मानना उपयुक्त होगा। अतः यास्कके निर्वचनोंमें प्रथमको पत् धातुसे तथा द्वितीय एवं तृतीय को पा धातुसे माना गया है। वे सभी ध्वन्यात्मक एव अर्थात्मक आधारसे युक्त हैं। व्याकरणके अनुसार पा धातुसे थुट् प्रत्यय कर पाथः शब्द बनाया जा सकता है।३८ अंग्रेजी का Path (राह) शब्द पाथस् का ही अन्तरराष्ट्रीय रूप है।
(४९) सवीमेनि :- इसका अर्थ होता हैं आझा पर, शासन में, प्रसव में आदि। निरुक्तके अनुसार- सवीमनि प्रसवे२२ अर्थात् यह शब्द षु प्रसवैश्वर्ययोः धातुसे निष्पन्न होता है- सु इमनिच-(गुण) सत् + इमनिच- (दीर्घ) सवीमन्- डि.-सवीमनि। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार-सु-इमनिच्+ डि= सवीमनि शब्द बनाया जा सकता है।
(५०) सप्रथा :- इसका अर्थ होता है सर्वत्र प्रस्तृत। निरुक्तके अनुसार- सप्रथा सर्वतः पृथुः२२ अर्थात् इस शब्दमें स +प्रथ् विस्तारे धातुका योग है। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा चारो ओर से फैला हुआ। स । प्रथ् + असुन् = सप्रथा। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार स +प्रथ् प्रख्याते धातुसे असुन् प्रत्यय कर सप्रथस् -सप्रथा शब्द बनाया जा सकता है।
(५१) विदथानि :- विदथ ज्ञानका वाचक है। विदथानि विदथका ही बहु वचनान्त रूप है निरुक्तके अनुसार-विदथानि वेदनानि२२ अर्थात् यह शब्द विद् ज्ञाने धातुसे निष्पन्न होता है क्योंकि वह जाना जाता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार विद् धातुसे कथच् प्रत्यय कर विदथ् विदथानि शब्द बनाया जा सकता है। विदथका अर्थ यज्ञ भी होता है। वेदके प्रसिद्ध व्याख्याकार उव्वट एवं महीधरने विदथको यज्ञ ही माना है।३९ यज्ञका ज्ञानसे सम्बन्ध होनेके कारण कोई विरोध नहीं माना जायगा।
(५२) श्रायन्तः- इसका अर्थ होता है आश्रित। निरुक्तके अनुसार- श्रायन्तः समाश्रिताः२२अर्थात् श्रायन्तः शब्द श्रिसेवायाम् धातुके योगसे निष्पन्न होताहै। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत
३४९ :व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क