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भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा ।
(४३) प्रकलवित् :- इसका अर्थ होता- वणिक् । निरुक्तके अनुसार-प्रकलवित् वणिक् भवति। कलाश्च वेद प्रकलाश्च२२ अर्थात् यह कलाओं एवं उपकलाओं को जानने वाला होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें प्र + कला + विद् ज्ञाने धातुका योग है। प्र कला प्रकला शब्द कला एवं उपकला का पर्याय है। प्रकला या कला आकलनको कहते हैं जिसके अन्तर्गत शिल्प, मान, प्रतिमान आदि आते हैं। उपकलागणित रत्न परीक्षा आदि विषयोंसे सम्बन्ध रखता है । वणिक् व्यवहारकी इन दोनों कलाओंका ज्ञाता होता है। यह सामासिक शब्द है। उपर्युक्त निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्त हैं।२७ भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार -प्र+ कला + विद्+क्विप् = प्रकलविद् शब्द बनाया जा सकता है।
(४४) अभ्यर्द्धयज्वा :- इसका अर्थ होता है अभिवृद्धिके साथ दान देता हुआ यज्ञ करता है। निरुक्तके अनुसार अभ्यर्द्धयज्वाऽभ्यर्द्धयन् यजति२२ अर्थात् अभिवृद्धि करता हुआ या पृथक् विभाजन कर यज्ञ करने वाला अभ्यर्द्धयज्वा कहलाता है। २८ इसके अनुसार अभि + अर्द्ध +यज् धातुके योगसे यह शब्द निष्पन्न होता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जाएगा।
(४५) ईक्षे :- इसका अर्थ होता है-शासन करते हो। निरुक्तके अनुसार-ईक्षे ईशिषे२२ अर्थात् ईक्षे एवं ईशिषे दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। ईक्षे शब्द ईशिषे से ही निष्पन्न है। इशिषे में इट् का लोप होकर ईश् +षे = इक्षे शब्द बन गया है। ईश् ऐश्वर्ये धातुसे ईक्षे निष्पन्न हुआ है। इसके अनुसार इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा ।
(४६) क्षोणस्य :- यह षष्ठ्यन्त पद है। इसका अर्थ होता है- निवास का । निरुक्त के अनुसार-क्षोणस्य क्षयणस्य२२ अर्थात् यह शब्द क्षि निवासे धातुके योग से निष्पन्न होता है। क्षि निवासे + ल्युट् (अण) क्षवण-क्षोण- क्षोणस्य । इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा । -व्याकरणके अनुसार क्षि निवासे+डोन प्रत्ययकर क्षोण-क्षोणस्य शब्द बनाया जासकता है (४७) अस्मे :- यह शब्द अनेकार्थक है तथा विभिन्न विभक्तियों के अर्थ से युक्त है। यह शब्द प्रसंगानुकूल कई विभक्तियोंमें प्रयुक्त हुआ है। अस्मद् शब्दसे शे
३४७ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य वाक
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