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प्रथमा द्विबचनका रूप है।
(३३) कपना :- यह क्रिमिका वाचक है। यह लकड़ी आदिमें लगने वाला कीड़ा, घुणविशेषका बोधक है। निरुक्तके अनुसार कपनाः कम्पनाः क्रिमयो भवन्ति १ अर्थात् कपनाः रस चोषक कीड़ेका वाचक है जो गतिमान होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें कप् गतौ धातुका योग है। कम्पनासे भी कपना: शब्द माना जायेगा। कप् धातुसे कपनाः शब्द माननेमें ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त रहता है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे यह संगत है। व्याकरणके अनुसार कप् गतौ + ल्यु प्रत्यय कर कपन : कपना: शब्द बनाया जा सकता है। इस शब्दका प्रयोग उक्त अर्थ में लौकिक संस्कृतमें प्राय: नहीं देखा जाता।
(३४) भाऋजीक :- इसका अर्थ होता है- अप्रतिहत प्रकाशवाला । निरुक्तके अनुसार-भाऋजीक: प्रसिद्धभा : १ यह सामासिक शब्द है । ऋजीक प्रसिद्ध का वाचक है तथा भा दीप्तिका । ऋजीका भा दीप्तिर्यस्य स ऋजीकमा : वर्णविपर्ययसे भाऋजीक: ऋजुदृ कन् भा ऋजु कभा: ऋजीकभा:- भाऋजीकः । यह अग्नि के विशेषण के रूप में प्रयुक्त है। इसका ध्वन्यात्मक पक्ष किंचित् शिथिल है। अर्थात्मक दृष्टिकोणसे यह उपयुक्त है। लौकिक संस्कृतमें इस शब्दका प्रयोग प्राय: नहीं देखा जाता।
(३५) रूजाना :- यह नदीका वाचक है। निरुक्तके अनुसार जानाः नद्यो भवन्ति रूजन्ति कूलानि१ अर्थात् ये तटों को तोड़ती रहती है अत: नदियां रूजाना: कहलाती है। इसके अनुसार इस शब्दमें रूज् भंगे धातुका योग है- ज्- रूजानाः । इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। यह वैदिक शब्द हैं। लौकिक संस्कृतमें नदीके अर्थ में इसका प्रयोग नहीं प्राप्त होता |
(३६) जूर्णि :- इसका अर्थ होता है-गति करने वाला या हिंसा करने वाला । निरुक्तके अनुसार १- जूर्णिर्जवतेर्वा१ अर्थात् यह शब्द जू गतौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि वह गति वाला होता है। २ द्रवतेर्वा १ अर्थात् यहशब्द द्रुगतौ धातुके योग से निष्पन्न होता है-द्रु धातुके उ एवं र का आपसीवर्ण परिवर्तनतथा द का ज कर द् र् उ-द-ऊ-र्-र्जूर्+ नि:= जूर्णि: । इसके अनुसार भी इस शब्दका अर्थ होगा गति करने वाला। ३- दूनोतेर्वा१ अर्थात् यह शब्द टुङ् परितापे धातुके योगसे निष्पन्न होता है। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा हिंसा करने वाला। इन निर्वचनों से स्पष्ट होता है कि
३४४ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क