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सर्तेरभ्यस्तात्१ अर्थात् शरणशील या आवारा घूमने वाला। इसके अनुसार इस शब्दमें सृ गतौ धातुका योग है। सृ धातुका अभ्यास होकर ससरूकम् (सृ +अभ्यास+ अक)= सररूकम्-सललूकम्। नैरुक्तों का निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टिसे किंचित् शिथिल है। यास्क का निर्वचन नैरुक्तोंके निर्वचनकी अपेक्षा ध्वन्यात्मक दृष्टिसे अधिक उपयुक्त है। अर्थात्मक आधार दोनों निर्वचनोंके उपयुक्त हैं।
(२०) तपुषि :- इसका अर्थ होता है तपाने वाला। निरुक्तके अनुसार तपुषिस्तपते:१ अर्थात् यह शब्द तप् सन्तापे धातुसे निष्पन्न होता है क्योंकि वह तपाने वाला होता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा।
(२१) हेति :- यह आयुधका वाचक है। निरुक्तके अनुसार - हेतिर्हन्ते:१ अर्थात् यह शब्द हन् हिंसागत्योः धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह हनन करता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। उक्त अर्थमें ही इसका प्रयोग लौकिक संस्कृत में भी पाया जाता है। व्याकरणके अनुसार हन् धातुसे क्तिन्१३ प्रत्यय कर हेतिः शब्द बनाया जा सकता है।
(२२) कत्पयम् :- इसका अर्थ होता है सुखदायी जलवाला मेघ। निरुक्तके अनुसार कत्पयं सुखपयसम्। सुखमस्य पयः१ अर्थात् कत्पयं में दो पद खण्ड हैं कत् सुख प्रदका वाचक है तथा उत्तर प्रदमें पयस् शब्द जलका वाचक है। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा सुखप्रद जलवाला। मेघका जल भी सुखप्रद या मधुर होता है१४ अतः कत्पयं मेघका वाचक है। यह निर्वचन अस्पष्ट है। इसका केवल अर्थ स्पष्ट किया गया है। इसके आधार पर भी इस शब्दमें कत र पयसम्-कत्पयसम् - कल्पयम् माना जायगा। इसका ध्वन्यात्मक आधार इसके अनुसार संगत माना जायगा। अर्थात्मक आधारसे तो यह उपयुक्त है ही। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग उक्त अर्थमें प्रायः नहीं देखा जाता।
(२३) विलुह :- यह जलका वाचक है। निरुक्तके अनुसार-विसुहः आपो भवन्ति विस्रवणात्१ अर्थात् विसुहः शब्दमें वि + त्रु गतौ धातुका योग है। जल भी गतिमान होता है। अत: विस्तूहः का अर्थ जल होता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा।
(२४) वीरुध :- यह औषधि या वनस्पतिका वाचक है। निरुक्तके अनुसार
३४१ व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क