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शब्द बनाया जा सकता है। १५०
(११४) आवह :- इसका अर्थ जल कुण्ड होता है। निरुक्तके अनुसार आवहः आवहनात१०९ अर्थात् यह शब्द आ+वह प्रापणे धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि वहां पशुओं को पानी पीने के लिए लाया जाता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। लौकिक संस्कृत में इसका प्रयोग प्राय: नहीं देखा जाता।
(११५) अवत :- यह कूपका वाचक है। निरुक्त के अनुसार अवतोऽवातितो महान् भवति१०९ अर्थात् यह नीचे काफी दूर तक गया होता है इसके अनुसार इस शब्दमें अव +अत् सातत्य गमने धातुका योग है। अव +अत् + क्त = अतित अव +अत- अवत। या-अव +अत् = अवत। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मकं आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। लौकिक संस्कृत में इसका प्रयोग प्राय: नहीं देखा जाता।
(११६) कोश :- इसका अर्थ होता है म्यान, तरकस या जल निकालने का पात्र विशेष। निरुक्तके अनुसार कोशः कुष्णातेर्विकषितो भवति१०९ अर्थात् कोश शब्द कुष् निष्कर्षे धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि इससे खींच कर निकाला जाता है। म्यान से तलवार, तरकस से वाण तथा पात्र विशेष से जल खींचा जाता है। अयमपीतर: कोष एतस्मादेव१०९ अर्थात् खजाना, धन संग्रह स्थान वाचक कोष भी उसी से निष्पन्न होगा क्योंकि खजाना से भी धन निकाला जाता है। शब्द संग्रह को भी इसी सादृश्य के आधार पर कोष कहा जाता है तथा यह भी इसी कुछ निष्कर्षे धातुके योगसे निष्पन्न होता है। इस कोषसे शब्द ढूंढ लिए जाते हैं। यास्कके इस निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार कुष निष्कर्षे धातुसे घञ्प्रत्यय कर कोशः शब्द बनाया जा सकता है।१५१
(११७) संचय :- यह कोष का वाचक है। निरुक्तके अनुसार सञ्चय आचित मात्रो महान् भवति१०९ अर्थात् इसमें धन संचित होते हैं तथा यह महान् बड़ा होता है। इसके अनुसार इस शब्द में सम् +चि चयने धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। लौकिक संस्कृत में भी संचय का प्रयोग समूह तथा कोशके अर्थमें होता है। व्याकरणके अनुसार सम्+चिञ् चयने +एरच् प्रत्यय कर संचय शब्द बनाया जा सकता है।५२
३२६: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क