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अथात्मक आधार इसका उपयुक्त है! भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। सृणिः कः अर्थ दात्री भी होता है जो वैदिक साहित्य में प्रयुक्त है।१६४ लगता है अर्थ सादृश्य के आधार पर सृणि: दात्री का वाचक बन गया। व्याकरणके अनुसार सृ गतौ धातुसे निः प्रत्यय कर सृणिः शब्द बनाया जा सकता है।६५
(१२७) अंकुश :- इसका अर्थ होता है हाथी को नियमित करने का लौह विशेष। निरुक्तके अनुसार अंकुशोऽञ्चतेराकुचिंतो भवति१०९ अर्थात् यह थोड़ा वक्र (आकुंचित) होता है। इसके अनुसार यह शब्द अंच् गतौ धातुके योग से निष्पन्न हुआ है क्योंकि यह हाथीके मस्तक पर गमन करता है। आकुंचित से अंकुश नानने पर इसमें कुच् संकोचे धातुका योग माना जायगा। अंच् गतौ धातुसे इसका निर्वचन मानने पर ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत होता है। फलत: इसे भाषा विज्ञानके अनुसार भी उपयुक्त माना जायगा। आ+ कुच् धातुसे अंकुश में ध्वन्यात्मक औदासिन्य है। अर्थात्मक आधार इसका भी उपयुक्त है। व्याकरण के अनुसार अंक धातुसे उशच् प्रत्यय कर अंकुशः शब्द बनाया जा सकता है। (अंकयते हस्तिचालनार्थमाहन्यतेऽनेन) - : सन्दर्भ संकेत :१.नि.५।१, २. कर्मसूपस्थितेषु नृत्यन्ति गात्राणि इतस्ततः प्रक्षिपन्ति तन्नराः इत्युच्यन्तेनि.दु.१.५।१, ३.अष्टा.३।१।१३४,४.दुतनिभ्यां दीर्घश्च-उणा. ३।९०,५. गत्या :अष्टा ३।४७२, ६. अष्टा. ६।१।७,७. नेत्रयोः दृष्टिनिरोधात्-नि.दु.दृ.५।१,८. पचाद्यच्-अष्टा. ३।१।१३४, ९. अपरिमिता: अस्मिन्नदन्ति इति-नि.दु.वृ. ५।१, १०. अमिनक्षियजिवधिपतिभ्योऽत्रन्-उणा. ३।१०५, ११. नि. ६५, १२. अमा शब्देन परिमाण हीनता वोध्यते नि.दु.वृ. ५।१, १३. अम. को. ३।३.२५०, १४. अष्टा. ३।२१७६, १५. उणा. ४।१५९, १६. नि.व. ५.१. १७. पापेन कर्मणा पुनः पुनः पापत्यमानःनि दु.वृ. ५।१, १८. अवाङ् नीचैरेव नरकमेवेमितियावत् पततीतिवा पाप. नि.दु.वृ. ५।१, १९. अर्श आद्यच्-अष्टा ५।२।१२७, २०. तृ प्लवन संतरणयो:- द्र. अष्टा १।२।१७ पर सिद्धा. कौ.वृ., २१. तरति शोकं तरति पाप्मा गुहाग्रन्थिभ्योविमुक्तोऽभृतोमवति तरति मृत्युं तरित ब्रह्महत्याम्-मुण्डकोप.. २२ २२. त्वम असम्यभाषणात् आहंसि इव तस्मात् आहना असि-नि.दु.वृ ५।१,
३. सत्यात् नदते. नि.दु.१.५।१, २४. निघ.:३१४,२५. अष्टा. ३।१।१३४, २६ टा: कस्माद -दनाभवन्ति शब्दवत्य: नि. २१७, २७. १०८९६, २८.
23० व्युत्पत्ति विज्ञान और आचाच