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(८५) निचुम्पुण :- यह अनेकार्थक है। कई अर्थों में इसके निर्वचन निरुक्त में प्राप्त होते हैं १- निचुम्पुणः का अर्थ सोम होता है निचुम्पुणः सोमो निचान्तपृणो निचमणेन प्रीणातिपयह खाने के बाद आनन्द देता है या खाने से तृप्ति प्रदान करता है।१०३ इसके अनुसार इस शब्द में-नि +चम् अदने +प्री तर्पणे निचम्+प्री- निचुम्पुण: है। नि+चम् +पृण निचुम्पुणः। २- निचुम्पुणः का अर्थ समुद्र भी होता है - समुद्रोऽपि निचुम्पुण उच्यते निचमनेन पूर्यते८५ अर्थात् यह पानी से भरा होता है। इसके अनुसार निचुम्पुणः शब्द में नि + चम् पुर् आप्यायने धातु का योग है- नि +चम +पुर् =निचमन + पुर =निचमन +पूण=निचुम्पुणः। ३- यज्ञादि कर्म को भी निचुम्पुण कहा जाता है अवमृथोऽपि निचुम्पुण उच्यते। (क) नीचैरस्मिन्क्वणन्ति८५ अर्थात् इस यज्ञ में धीमे स्वर में पाठ करते हैं इसके अनुसार इस शब्द में नीचे +क्वण शब्दे धातु का योग है नीचे + क्वण-नीचंक्वण-नीचंकण निचुम्पुणः। (ख) नीचैर्दधतीति वा८५ अर्थात् अवमृथनिम्नकर्म को नीचे रखता है या यज्ञीय पात्र इसमें नीचे रखे जाते हैं।१०५ इसके अनुसार इस शब्द में नीचैः +धा धातुका योग है। निचुम्पुण शब्द निचुंकुण के रूप में भी प्राप्त होता है।०४ जो यज्ञ का वाचक है। इसके अनुसार निचुंकुण ही निचुम्पुण हो गया है। सोम एवं समुद्रके अर्थ में प्राप्त निचुम्पुणके निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त हैं।इन्हें भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से संगत माना जायगा। शेष निर्वचन अर्थात्मक महत्व रखते हैं।इस शब्दका प्रयोग लौकिक संस्कृतमें प्राय:नहीं देखा जाता।
(८६) पदिः- इसका अर्थ होता है-जाने वाला-पक्षी या यात्री। निरुक्तके अनुसार-पदिः गन्तुर्मवति। यत्पद्यते८५ अर्थात् क्योंकि वह जाता है, चलता है, इसलिए पदिः कहलाता है। इसके अनुसार इस शब्द में पद् गतौ धातु का योग है। इस निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार पद्+इण प्रत्यय कर पदिः शब्द बनाया जा सकता है।
(८७) मुक्षीजा:- यह जाल या पाश का वाचक है। निरुक्त के अनुसार १- मोचनाच्चा८५ अर्थात् यह शब्द मुच् मोक्षणे धातु के योग से निष्पन्न होता है क्योंकि इससे बंधे पक्षी आदि मुक्त किए जाते हैं। २. सयनाच्च८५ अर्थात् इस शब्दमें सि बन्धने धातुका योग हैक्योंकि इससे पक्षी आदि बांधे जाते हैं।जाल में पक्षी स्वयंबंध जाते हैं। ३-तननाच्च८५ अर्थात् इस शब्द में तन् विस्तारे धातु का योग है क्योंकि पक्षियों को बांधने
३१७ . व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क