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के लिए इसे फैलाया जाता है। १०६ इस शब्दमें तीनों धातुओंका योग पाया जाता है - मुच् मोक्षणे, सि बन्धने तथा तन् विस्तारे। मुच् +सि + तन् = मुक् +षि +तन् मुक्षीतामुक्षीजा। इस आधार पर इसका अर्थ होगा जिसे पक्षी आदि को पकड़ने के लिए फैलाया जाय, जिससे पक्षी आदिको बांधा जाय तथा बंधे हुए जीवों को मुक्त किया जाय। एक साथ सभी अर्थोंका आधान इस शब्दमें हो जाय इसलिए यास्कने तीन धातुओंकी कल्पनाकी है। तीनों धातुओंसे अलग-अलग भी निर्वचन संभव हैं। मुच् मोक्षणे धातुसे मुक्षीजा शब्द मानने पर ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक संगति रहती है। सि बन्धने तथा तन् विस्तारे धातुसे मुक्षीजा शब्दमें मात्र अर्थात्मक महत्त्व है। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्रायः नहीं देखा जाता।
(८८) पादु :- इसका अर्थ होता है गति या चरण । निरुक्तके अनुसार पादुः पद्यते:५८ अर्थात् पादु शब्द में पद् गतौ धातुका योग है क्योंकि यह गमन का नाम है या इससे चला जाता है। इस निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा । व्याकरणके अनुसार पद् गतौ धातु से उण् प्रत्यय कर पादुः शब्द बनाया जा सकता है।
(८९) बुसम् :- यह जल का वाचक है । निरुक्तके अनुसार २ - बुसमित्युदक नाम। व्रवीतेः शब्द कर्मण:५८ अर्थात् यह शब्द ब्रूञ व्यक्तायां वाचि धातु के योग से निष्पन्न होता है क्योंकि जल वर्षण आदि के समय शब्द करता है । २-भ्रंशतेर्वा५८ अर्थात् यह शब्द भ्रंस् अध: पतने धातु के योग से निष्पन्न होता है क्योंकि मेघ से वह नीचे गिरता है। (ज़ल की गति निम्नाभिमुख होती है) भ्रंस् धातुसे भुसम्-बुसम् । प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टि से शिथिल है। इसका अर्थात्मक महत्त्व है। द्वितीय निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार से युक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जा सकता है। व्याकरणके अनुसार वस् उत्सर्गे धातु से क : १०७ प्रत्यय कर बुस बनाया जा सकता है लौकिक संस्कृतमें बुसम् का अर्थ फलरहित धान्य या पुआल आदि होता है।“बुसम्का ही हिन्दी भाषामें भूसा शब्द प्रयोग होता है जो पुआल आदि पशु आहारका वाचक है। लौकिक संस्कृतमें वैदिक बुसम् का अर्थान्तर पाया जाता है। (९०) वृक :- यह अनेकार्थक है। कई अर्थों में इसके निर्वचन निरुक्तमें उपलब्ध होते हैं १- वृक: का अर्थ चन्द्रमा होता है (क) विवृत ज्योतिषको १०९ वा अर्थात् वह अत्यधिक चमकने वाला होता है या खुले प्रकाश वाला होता है। इसके अनुसार वृकः
३१८ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क