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कहलाया । ११९ इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे इसे संगत माना जायगा । लौकिक संस्कृतमें चर्म, त्वक् आदिके अर्थमें इसका प्रयोग पाया जाता है । १२० व्याकरणके अनुसार कृती छदने धातुसे क्तिन् प्रत्यय कर कृत्तिः शब्द बनाया जा सकता है। वैदिक कालसे लौकिक काल तक इस शब्द में अर्थ संकोच हुआ है।
(९५) श्वघ्नी :- यह शब्द जुआरीका वाचक है। निरुक्तके अनुसार श्वनी कितवो भवति स्व हन्ति१०९ अर्थात् श्वध्नीका अर्थ कितव होता है क्योंकि यह धन का नाश करता है। इसके अनुसार इस शब्द में श्व- (धन) + हन् धातुका योग है। स्व + हन्-श्वघ्न-श्वघ्नी स्व धन का वाचक है स्व ही श्वघ्नी शब्द के पूर्व पदमें श्वके रूप में आया है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा । श्वघ्नी शब्दका प्रयोग उक्त अर्थ में लौकिक संस्कृत में प्राय: नहीं देखा जाता।
(९६) स्वम् :- इसका अर्थ होता है-धन । निरुक्तके अनुसार - स्वं पुनराश्रितं भवति१०९ अर्थात् यह किसीका आश्रित होता है। अतः आश्रित होनेके कारण स्वम् को धन कहा जाता है। इसके अनुसार इस शब्द में श्रिञ् सेवायां धातुका योग है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार किंचित् शिथिल है। अर्थात्मक आधार सर्वथा संगत है। व्याकरणके अनुसार स्वन् शब्दे धातु से ड : १२१ प्रत्यय कर स्वम् शब्द बनाया जा सकता है। धन के अतिरिक्त स्वम् के आत्मीय आदि भी अर्थ होते हैं । १२२
(९७) कितव :- इसका अर्थ होता है जुआरी । निरुक्तके अनुसार १ - कितव: किं तव अस्तीति शब्दानुकृति : १०९ अर्थात् तुम्हारे पास क्या है ? इस किं तव की शब्दानुकृति के कारण कितवः शब्द बन गया । किम् + तव कितवः । २- कृतवान् वाशीर्नामकः अर्थात् आशीर्वादात्मक कृतवान् शब्दसे ही कितवः शब्द बन गयाकृतवान्- कृतवत् कृतव-कितवः । जुआरी के मित्र सदा जय मनाते रहते हैं । १२३ डा. वर्मा के अनुसार इस निर्वचनमें स्वरगत एवं व्यंजनगत औदासिन्य है । १२४ वस्तुतः शब्दानुकरणके आधार पर यह नामकरण हुआ है जो निरुक्त सम्प्रदायके अनुकूल है तथा भाषा विज्ञानके अनुसार संगत है। प्रथम निर्वचनको भाषा विज्ञानके अनुसार भी संगत माना जायगा। द्वितीय निर्वचनमें ध्वन्यात्मक शैथिल्य अवश्य है । व्याकरणके अनुसार कित + वा + कः प्रत्यय कर कितवः शब्द बनाया जा सकता है। १२५
३२१ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
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