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वृणोतीति सत. अर्थात् यह वस्तुओंको आवृत कर लेता है। इसके अनुसार इस शब्दमें वृवरणे धातुका योग है। इस निर्वचनमें ध्वन्यात्मक शैथिल्य है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत नहीं माना जाएगा। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्राय: देखा नहीं जाता है।
(४७) तवसः :- यह शब्द महत्का पर्याय है। निरुक्तके अनुसार-तवस इति महतो नामधेयम्।५८ उदितो भवति अर्थात् यह उदित होता है। यह निर्वचन अस्पष्ट है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त नहीं माना जाएगा। इस शब्दका धातु प्रत्यय पूर्णतया अस्पष्ट है। ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण तथा संगत प्रतीत नहीं होता।
(४८) आघृणिः :- इसका अर्थ होता है प्रदीप्त। निरुक्तके अनुसार-आघृणि: आगतहृणि:५८ अर्थात् क्रोध या दीप्तिको प्राप्त। इसके अनुसार आघृणि: शब्दमें आ + हृणिः का योग है। आ आगतका वाचक है तथा हृणि: दीप्ति या क्रोध का!६६ हृणिः स्थित ह का घ वर्ण विपर्ययके द्वारा हो गया है। ह वर्णका महाप्राण वर्णमें परिवर्तन अन्य शब्दोंमें भी पाया जाता है-हन्का जघान आदि। यह निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टिसे उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार यह सामासिक शब्द है-आगतो घृणिर्दीप्तिरस्य।
(४९) पृथुज्रया :- इसका अर्थ होता है प्रवल वेगवाला। निरुक्तके अनुसारपृथुज्रयाः पृथुजव:५८ अर्थात् पृथु वेगवाला। इसके अनुसार पृथु ज्रया शब्द में पृथु+ ज़ि धातुका योग है। ज्रि धातु निघण्टु पठित है जो गति अर्थमें है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार पृथु +ज़ि +अशुन् प्रत्यय कर पृथुज्रयस्-पृथुज्रयः पृथुज्रया शब्द बनाया जा सकता है।
(५०) अथर्यु :- इसका अर्थ होता है सततगमनशील। निरुक्तके अनुसारअथर्युम् अतनवन्तम्१८ अर्थात् अथर्यु शब्द अत् सातत्यगमने धातुके योगसे निष्पन्न होता है। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा जाने वाला। अत् - अथस् +युः अथर्युः। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त है। अर्थात्मक दृष्टिकोणसे भी यह उपयुक्त है। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्रायः नहीं देखा जाता। अथर्युमें यु तद्वान् अर्थमें प्रत्यय है धातु स्थित त का थ महाप्राणीकरण है जो भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे संगत है। अध्वर्यु:६७ इदंयु:६८आदि शब्दोंमें भी यु प्रत्यय ही है।(अत्-अतर् +यु:=अतर्युः अथर्युः)
३०५ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क