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अरि: कहलाते हैं। इस निर्वचनमें ऋ धातुका गुण होकर अर तथा अरिः बन गया है। यह निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिसे उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार यह उपयुक्त माना जाएगा। लौकिक संस्कृतमें अरि: शब्द ऋ हिंसार्थक धातुके योग से निष्पन्न माना जाता है। व्याकरणके अनुसार ऋ धातु से इ:१ प्रत्यय कर अरिः शब्द बनाया जा सकता है।दुर्गाचार्य अरिःशब्दमें हिंसार्थक ऋ धातुका योग मानते हैं।
(४४) स्वचा :- इसका अर्थ होता है-सुन्दर गमन युक्त। निरुक्तके अनुसारस्वञ्चा: सु अञ्चना:५८ अर्थात् सुन्दर गति वाला। इसके अनुसार इस शब्दमें सु+अञ्च गतौ धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार भी इसे संगत माना जाएगा।
(४५) शिपिविष्ट :- यह विष्णुका नाम है। निरुक्तके अनुसार-शिपिविष्ट विष्णुरिति विष्णोझै नामनी भवतः। कुत्सितार्थीयं पूर्वं भवतीत्यौपमन्यवः। अर्थात् शिपिविष्ट एवं विष्णु विष्णुके दो नाम हैं। आचार्य औपमन्यवके अनुसार प्रथम नाम अर्थात् शिपिविष्ट कुत्सित अर्थ रखने वाला है। इसके निर्वचनमें कहा गया है- शेप इव निर्वेष्टित:५८ अर्थात् शेप (शिश्न) के समान निर्वेष्टित (नग्न))। यह अप्रख्यापनीय नाम है। शिपिविष्टका उत्तम अर्थ भी किया गया है जो सबजगह ग्रहण करने योग्य है। शिपिविष्टका अर्थ होगा पूर्ण, रश्मियों से युक्त। शिपयोडन रश्मय उच्यन्ते तैराविष्टो भवति अर्थात् शिपि रश्मिका वाचक है तथा उन रश्मियोंसे युक्तको शिपिविष्ट कहा जाता है। दोनोंही निर्वचन विष्णु (आदित्य) के अर्थमें संगत हैं। प्रथम निर्वचनके सम्बन्धमें औपमन्यवका कहना है कि यह अश्लील अर्थ प्रकट करने वाला है। यास्क आदित्यके अर्थमें शेप इव निर्वेष्टितःका अर्थ अप्रतिपन्न रश्मि कस्ते हैं।५८ अप्रतिपन्न रश्मि कहनेका तात्पर्य है कि सूर्य सूर्योदय कालमें किरणोंसे पूर्ण वेष्टित नहीं रहते। मात्र प्रकाश स्वरूप (शेप) ही रहते हैं।६४ अतः यास्कके अनुसार इसका अर्थ कुत्सित नहीं है। शिपि +विश् + क्त = शिपिविष्टः द्वितीय निर्वचनमें शिपि +आविष्टिः शिपि +विश् +क्त। दोनों निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे सम्पन्न हैं। भाषा विज्ञानके अनुसार इन्हें संगत माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार यह सामासिक शब्द माना जाएगा। शेपैराविष्टः शिपिविष्टः। लौकिक संस्कृतमें शिपिविष्ट शब्दका प्रयोग रोग आदिके कारण झड़े बाल वाले खल्वाट, खराब चमड़े वाला , शिव, विष्णु आदिके अर्थमें होता है।६५ ।।
(४६) वर्प :- यह रूपका नाम है। निरुक्तके अनुसार वर्ष इति रूपनाम।
३०४ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य याम्क,