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नक् प्रत्यय कर सिनम् शब्द बनाया जा सकता है। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्राय: नहीं पाया जाता।
(३६) इत्या :- यास्कने इसके निर्वचनमें कहा है कि अमुथा शब्दसे ही इसकी व्याख्या हो गयी। अमुथा शब्दका निर्वचन निरुक्तके तृतीय अध्यायमें हुआ है। यथा असौ से अमुथा शब्दको माना गया है। यह निर्वचन अस्पष्ट है। व्याकरणके अनुसार इदम्-इ + था५१ प्रत्ययसे इत्या शब्द बना है। व्यत्ययसे विमक्तिका डादेश होकर इत्था शब्द निष्पन्न है५२
(३७) सचा :- यह एक निपात है। यास्क मात्र इसका अर्थ स्पष्ट करते हैंसचाका अर्थ होता है एक साथ। निर्वचन प्रक्रिया तथा भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त निर्वचन नहीं माना जाएगा। इसका प्रयोग लौकिक संस्कृतमें प्रायः नहीं देखा जाता। भाषा विज्ञानके अनुसार इसमें सच् समवाये धातुका योग माना जाएगा। यास्क धातुका निर्देश नहीं करते हैं।
(३८) चित् :- यह भी एक निपात है तथा अनेकार्थक है। यास्क चित् निपातका विभिन्न अर्थोंमें प्रयोग कर अर्थ स्पष्ट करते हैं। आचार्यश्चिदिदं ब्रूयात्५३ में चित् निपातका प्रयोग सम्मानार्थक है। दधिचित्५३ में चित्का प्रयोग उपमार्थक हैं। कुल्माषांश्चिदाहर५३ इसमें चित्का प्रयोग कुत्सितार्थक है। उपमार्थक चित् निपात अनुदात्त होता है। पशुके अर्थमें चित्का प्रयोग उदात्त होता है-अथापि पशुनामेह भवत्युदात्तः चिदसि मनासि धीरसि१४ इस उद्धरणमें चित् पशु वाचक है तथा उदात्त है। चित्के निर्वचनमें यास्कका कहना है- चितास्त्वयि भोगाश्चेतयत्यइतिवा१ अर्थात् वह पशु भोगके लिए संचित है अतः चित् शब्दमें चि चयने धातुका योग है। अथवा यह चेतना देने वाली है। इस आधार पर इस शब्दमें चित् संज्ञाने धातुका योग है। चि या चित् धातुसे चित् शब्द माननेमें ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है। निपातोंका निर्वचन करना यास्ककी अपनी विशेषता है। इन निर्वचनों से स्पष्टहो जाता है कि समी निपात किसी न किसी धातुसे अवश्य निष्पन्न होंगे।
(३९) आ:- यह एक उपसर्ग है। यह भी कई अर्थों में प्रयुक्त होता है। यास्क इसका कई अर्थों में प्रयोग दिखलाते हैं-देवेभ्यश्च पितृभ्य आप५ इस उदाहरणमें आ उपसर्ग समुच्चयार्थक है। अधिके अर्थमें भी आ उपसर्गका प्रयोग देखा जाता है अम्र आ अप: यहांआ उपसर्ग अधिके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है-मेघमें जलया जलमें मेघाअधि का
३०२ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क