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भी पाया जाता है।९६
(६८) पुष्पम् :- इसका अर्थ होता है - फूल। निरुक्तके अनुसार - पुष्पं पुष्पतेः-५ अर्थात् यह शब्द पुष्प विकसने धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह विकसित होता है, खिलता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। यह धातुन सिद्धांत पर आधारित है। भाषा विज्ञानके अनुसार भी इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार पुष्प् विकसने धातुसे अच् प्रत्यय कर पुष्पम् शब्द बनाया जा सकता है।९७
- (६९) वयुनम् :- यह कान्ति या बुद्धिका वाचक है। निरुक्त्तके अनुसार वयुनं वेतेः कान्तिर्वा प्रज्ञावा८५ अर्थात् यह शब्द व्री गत्यादौ धातुसे निष्पन्न होता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। वी धातु कान्त्यर्थक एवं प्रज्ञार्थक भी है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार वय् + उ नन् प्रत्यय कर वयुनम् शब्द बनाया जा सकता है।
(७०) वाजस्पत्यम् :- यह सोमका वाचक है। निरुक्तके अनुसार - वाजस्पत्यं वाज पतनम् ५ अर्थात् वाजका अर्थ होता है अन्न या वल तथा वाज अन्न या वलका आधान कराने वाला वाजस्पत्यम् कहलाता है। इसके अनुसार इस शब्दमें वाज+पत् धातुका योग है. वाज+पत् = वाजपत् । वाजस्पत्य। अन्न या भोज्य समझ कर जिस ओर दौड़ा जाता है उसे वाजस्पत्यम् (सोम) कहा जाता है।९८ देवता सोमको भोज्य या पेय समझकर उस ओर दौड़ पड़ते हैं। सोम देवताओंका प्रमुख भोज्य है। यह निर्वचन समास पर आधारित है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसारभी इसे संगत माना जायगा।
(७१) वाजगन्ध्यम् : यह सोम, दूध, दही, घृत आदिका वाचक है। निरुक्तके अनुसार वाजगन्ध्यं गध्यत्युतरपदम्८५ अर्थात् गध्य उतर पदसे वाजगंध्य कहलाता है। गध्यका अर्थ होता है मिश्रित या ग्राहय। इस प्रकार वाजगंध्य का अर्थ होगा बलके लिए मिश्रित सोमादि या बलके लिए ग्राह्य पदार्थ।९९ इसके अनुसार इस शब्दमें वाज+ गध् मिश्रीकरणे, या ग्रहणे धातुका योग है। यह सामासिक शब्द है। इस निर्वचनमें यास्कने मात्र इसके उतर पदका निर्देश किया है। पूर्व पद पूर्व विवेचित तथा स्पष्ट होनेके कारण यहां विवेचित नहीं हुआ है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे भी संगत माना जायगा। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्रायः
३१३ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क