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आचार्योंके अनुसार अक्षा : शब्दमें अश् व्याप्तौ धातुका योग है। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा व्याप्त होने वाला। यास्क सोमो अक्षा :के निर्वचन क्रममें ऋग्वेदके मन्त्रोंका उल्लेख करते हैं।२७ तदनुसार अक्षा : क्रिया पद है। अक्षा :का प्रयोग संज्ञापदके लिए भी होता है जिसका अर्थ द्यूत-क्रीड़ाका पाशा होता है। यहां अक्षाः क्रियापद अश्नुते का स्थानापन्न है। २. क्षियति निगम: पूर्व : क्षरति निगमः उत्तर इत्येके।' अर्थात् कुछ आचार्योंका विचार है कि-अनूपे गोमान्गोभिरक्षा सोमोदुग्धाभिरक्षाः लोपाश: सिंह प्रत्यञ्चमत्सा :२८ इस मन्त्रमें प्रथम अक्षाका अर्थ निवास करना है जिसके अनुसार अक्षाः शब्दमें क्षि निवासे धातुका योग है। क्षि अक्षा ः। उत्तर पद अक्षा में क्षर् प्रवाहे धातुका योग है जिसके अनुसार इसका अर्थ होगा प्रवाहित होता है। ३-सर्वे क्षियति निगमा इति शाकपूणि:१ आचार्य शाकपूणिके अनुसार उक्त मन्त्रमें प्रयुक्त अक्षा :के सभी निर्वचनमें क्षि निवासे धातुका योग है। उपर्युक्त वर्णनसे स्पष्ट है कि अक्षा: शब्दमें अश्, क्षि, एवं क्षर् धातुका योग माना गया है। शाकपूणि आचार्य अक्षाः शब्दमें अश् व्याप्तौ तथा क्षर् संचलने धातुका योग नहीं मानते हैं। ये समी निर्वचन अर्थात्मक संगतिके लिए ही किये गये हैं। ध्वन्यात्मक दृष्टिसे यह उपयुक्त नहीं है। लौकिक संस्कृतमें अक्ष : संज्ञापदके रूपमें प्रयुक्त होता है तथा इसके कई अर्थ होते हैं कर्ष (षोडश माषा का प्रमाण विशेष) जुआ खेलनेका पाशा, पहिया, बहेड़ा, व्यवहार आदि।२९ व्याकरणके अनुसार अक्ष् व्याप्तौ धातुसे अच् प्रत्यय कर अक्ष : शब्द बनाया जा सकता है।
(१९) श्वात्रम् :- इसका अर्थ होता है-शीघ्र। निरुक्तके अनुसार-श्वात्रमिति क्षिप्रनामाशु अतनं भवति१ अर्थात् वह सतत गति वाला या शीघ्र गति वाला होता है। इसके अनुसार श्वात्रम् शब्दमें अत् गतौ धातुका योग है आशु-शु-आ + अत् + रक् = सु + आत् + रक् = श्वात्रम्। आशुका वर्ण विपर्यय होकर शु + आ तथा अत् + रक् = श्वात्मा यह निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त नहीं है। अर्थात्मक आधारसे यह युक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे पूर्ण उपयुक्त नहीं माना जाएगा।
(२०) ऊंतिः :- इसका अर्थ होता है-रक्षा करना। निरुक्तके अनुसार उतिरखनात् अर्थात् रक्षा करनेके कारण ऊतिः कहलाता है। इसके अनुसार उतिः शब्दमें अद् क्षणे धातुका योग है। व का उ सम्प्रसारणका परिणाम है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे इसे संगत माना जाएगा।
(२१) हासमाने :- इसका निर्वचन नवम अध्यायमें किया गया है। हासमाने
२९६ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क