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से पूर्ण अभिज्ञ थे। विभिन्न वैयाकरणों एवं निरुक्तकारोंके सिद्धांतों का उल्लेख भी इन्होंने अपने निरुक्तमें किया है। फलतः उन वैयाकरणों एवं निरुक्तकारोंके सिद्धान्तोंसे भी वे पूर्ण परिचित थे। निरुक्तमें प्राप्त व्याख्यानों एवं विवेचनोंके अनुसार इनको वैज्ञानिक, भूगोलवेत्ता, दार्शनिक, कामशास्त्री आदि भी कहा जा सकता है।
आचार्य यास्कने विभिन्न आचार्योंके सिद्धान्तोंका प्रतिपादन कर उस सिद्धान्त से अपनी सहमति या असहमति प्रकट की है। पूर्वाचार्यों के द्वारा प्रतिपादित कुछ सिद्धान्त निरुक्तमें तर्कपूर्ण ढंग से प्रतिष्ठित किए गए हैं। जैसे- उपसर्गों की वाचकता, आख्यातज सिद्धान्त आदि। इन सिद्धान्तोंकी स्थापनामें ये पूर्ववर्ती आचार्योंके नाम ही प्रथम लेते हैं, लेकिन उसकी स्वीकृति से पता चलता है कि ये इनकी ही स्थापना है। इन्द्र, अग्नि आदि कुछ शब्दोंकी सिद्धिमें तो वे अपनी अमित प्रतिभाका परिचय देते हैं। निरुक्तमें ही प्राप्त वर्णनोंके अनुसार पता चलता है कि कहीं-कहीं इनकी दृष्टि व्यवहारपरक हो गयी है। फलतः इनका सिद्धांत प्रत्यक्ष की ओर ज्यादा अग्रसर दीख पड़ता है। देवताओंके आकार चिन्तनमें भी वे मौलिक दृष्टि अपनाते हैं। देवताओंका विभाजन इनकी मौलिक दृष्टिका ही परिणाम है।
शब्दोंके प्रयोगमें यास्क सूक्ष्म दृष्टि अपनाते हैं। इनका शब्द कौशल निश्चित ही हृदयावर्जक है। किसी तथ्य को सरस एवं सरल शैलीमें प्रतिपादित करना इनकी अपनी विशेषता है।१८ निरुक्तमें सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा विधिसम्बन्धी विषयोंका यत्र-तत्र विन्यास भी श्लाघ्य है। इन विषयोंके समुचित विन्याससे पता चलता है कि यास्क व्यवहारवादी, कुशल एवं यथार्थ द्रष्टा हैं। इन्हें बहुमुखी प्रतिमा से समन्वित युंग पुरूष कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
• सन्दर्भ संकेत
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१. पुराणन्याय मीमांसा धर्मशास्त्रांगमिश्रिताः । वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य • च चतुर्दश ।। याज्ञ. स्मृ. २. यास्को मामृषिरव्यग्रोऽनेकयज्ञेषु गीतवान्। शिपिविष्ट इति ह्यस्माद् गुह्यनामधरोह्यहम्।। स्तुत्वा मां शिपिविष्टेति यास्क ऋषिरुदारधीः। मठासादादघो नष्टं निरुक्तमधिजग्मिवान्। । ' - महा. शा. पर्व. अध्या. ३२४ । ७०-७१, ३. महाभाष्यप्रथमाह्निक, ४. यस्कादिम्यो गोत्रे - अष्टा २|४| ६३, ५. शतपथ ब्राह्मण- १४/५/५/२१, ६. अष्टा. ६।१।१५७, ७. काशिका ६।१।१५७ पर न्यास- द्र. ८. इवेति भाषायाम्’- नि. १।२ शवतिगतिकर्मा कम्वोजेष्वेव माष्यते विकारमस्यार्येषु शव इति। ' -
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७२ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
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