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(११७) उदात्तम् :- उदात्त स्वरभेद को कहते है। निरुक्तके अनुसार तीव्रार्थतरमुदात्तम्१४४ अर्थात् जिसे बोलने में अर्थमें तीव्रता होती है उसे उदात्त स्वर कहते हैं लोक में प्रयुक्त उदात्त शब्द उत्कृष्ट का वाचक है अर्थात् उदात्त का अर्थ है तीव्रार्थतर उत्कृष्ट गुणयुक्त। स्वरोदात्त में अर्थमें तीव्रता रहती है। यास्क इसका निर्वचन प्रस्तुत नहीं कर मात्र अर्थ ही स्पष्ट करते हैं। निरुक्तमें उदात्त को प्रधान भी माना गया है। शुक्लयजुः प्रातिशाख्य के अनुसार उच्च ध्वनिसे उच्चरित स्वर उदात्त कहलाता है।१७२ प्रसिद्ध भाष्यकार उष्वट वहीं पर इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैंगात्रों के ऊर्ध्वगमनसे जो स्वर निकलता है वह उदात्तसंज्ञक होता है।१७३ आचार्य पाणिनि भी शुक्लयजुः प्रातिशाख्यके सूत्रको ग्रहण करते हैं।१७४ जिसकी वृत्तिमें भट्टोजिदीक्षितका कहना है कि तालु आदि समान भाग वाले स्थानों में ऊर्ध्व भाग में निष्पन्न स्वर उदात्त संज्ञक होता है।१७५ निर्वचनकी प्रक्रिया एवं भाषा विज्ञान की दृष्टि से यास्कका यह निर्वचन अपूर्ण है। व्याकरणके अनुसार उत+ दा + क्त प्रत्यय कर उदात्त शब्द बनाया जा सकता है।१७६ उत् उच्चै आदीयते उच्चार्यते इति उदात्तम्।
(११८) अनुदात्तम् :- यह स्वर भेद है। निरुक्तके अनुसार अल्पीयोऽर्थतरमनुदात्तम्१४४ अर्थात् कम बल दिए गए अर्थ में अनुदात्त होता है। यास्क ने अनुदात्त का मात्र अर्थ स्पष्ट किया है। जिसे बोलनेमें अर्थ में अल्पता रहे उसे अनुदात्त कहेंगे। अनुदात्तका लोक प्रयुक्त अर्थ होगा हीनगुणसे युक्त। अर्थात् अनुदात्त गौणका वाचक है शुक्लयजुः प्रातिशाख्यके अनुसार नीची ध्वनिसे उच्चरित स्वर अनुदात्त कहलाता है।१७७ उव्वट इसकी व्याख्या में कहते हैं- गात्रों के अधोगमनसे जो स्वर निष्पन्न होता है उसे अनुदात्त कहते हैं।१७८ पाणिनि इसके लिए शुक्ल यजुः प्रातिशाख्य के सूत्र को ग्रहण करते हैं।१७९ व्याकरणके अनुसार अन् + उ + दा + क्त प्रत्यय कर अनुदात्त शब्द बनाया जा सकता है।१७६
(११९) ररिवान् :- इसका अर्थ होता है. दान देते हुए। निरुक्तके अनुसारररिवान् रातिरभ्यस्त:१४४ अर्थात् इस शब्द में रा दाने धातुका योग है। रा दाने धातुका द्वित्व होकर ररिवान् हो गया है। इसमें क्वसु प्रत्यय हैं। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जाएगा।
(१२०) अजः :- यह वकराका वाचक है। निरुक्तके अनुसार अजा अजना:१४४ अर्थात् गमन युक्त होने के कारण अज कहलाता है। इस निर्वचनके अनुसार अज
२७९ मुत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क