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आधार उपयुक्त है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से इसे संगत माना जाएमा। लौकिक संस्कृत में दंस् धातु दर्शन एवं डंसना अर्थों में प्रयुक्त है।१६५
(१०८) तूताव :- तूताव का अर्थ होता है बढ़ता है। इसके अनुसार इसमें तु वृद्धौ धातुका योग है। इसके निर्वचनमें यास्कने तुताव कह कर धातुको स्पष्ट किया है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जाएगा।
(१०९) अंहति :- इसका अर्थ होता है, पाप या विपत्ति। निरुक्तके अनुसार अहंति श्चांहश्चांहुश्च हन्तेः अर्थात् अंहति , अंहः एवं अंहु ये तीनों शब्द समान अर्थ रखने वाले हैं तथा हन् धातुसे निष्पन्न होते हैं। निरूढोपधात् विपरीतातप४४ अर्थात् हन की उपधा को निकालकर एवं विपरीत कर ये शब्द बनते हैं। हन् -उपधा निकालने पर हन् -ह + अन् - विपरीत करने पर अन् + ह् = अहंति, अंह या अंहुः। इस निर्वचन का अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। यास्कने इसकी सिद्धिमें धातुकी खींचातानी की है।
(११०) चयसे :- इसका अर्थ होता है नाश करते हो। यह मध्यम पुरुष एक वचन का रूप है तथा अनवगत संस्कार का पद है। यास्क ने चयसे-चात्तयसि।१४४ चातयसि अर्थात् नाशयसि के द्वारा चयसे का मात्र अर्थ ही स्पष्ट होता है।१६६ इसका ध्वन्यात्मक आधार अस्पष्ट है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे अपूर्ण माना जाएगा। चातयसि के आधार पर इसमें चत् धातु का अनुमान लगाया जा सकता है जो हिंसा अर्थ में होना चाहिए। लेकिन धातु पाठ में इस अर्थ में चत् धातुका निर्देश नहीं प्राप्त होला। वैदिक कालमें इस प्रकार के धातु रहे होंगे।
(१११) पियारूम् :- इसका अर्थ होता है - हिंसका निरुक्तके अनुसार - पियारुम् पीयुम्। पीयति हिंसाकर्मा१४४ अर्थात् यह शब्द हिंसार्थक पीय धातुसे व्युत्पन्न है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। पीयुः पियारु समानार्थक है। दोनों में पीय धातुका योग है। इसका प्रयोग लौकिक संस्कृतमें प्रायः नहीं देखा जाता। डा. लक्ष्मण स्वरूप पीय को उपहास करना अर्थ मानते हैं।१६७
(११२) वियुते :- इसका अर्थ होता है धु लोक एवं पृथ्वी लोका निरुक्तके अनुसार वियुते द्यावापृथिव्यौ। वियवनात्१४४ अर्थात् ये दोनों लोक एक दूसरेसे पृथक् रहते हैं। इसके अनुसार वियुते शब्दमें वि + यु विमिश्रणे धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे अनुकूल
२७७ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क