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राशिको निधि कहते हैं। निधि सेवनीय है। भाषा विज्ञानके अनुसार यह अस्पष्ट है। व्याकरणके अनुसार नि+धा + कि से निधि शब्द बनता है। ___(55) गौ :- इसका अर्थ पृथिवी, पशु (गाय, वैल) सूर्य रश्मि आदि होता है।108 यास्क इसका निर्वचन कई अर्थोमें कई प्रकारसे उपस्थापित करते हैं(1) यदूरंगता भवति पृथिवीके अर्थमें निर्वचन प्रस्तुत करते हुए कहते हैंकि जो बहुत दूर तक गयी होती है या जहां मनुष्य जाते है वहां सब जगह यह मिलती है इसलिए इसे गो कहा जाता है। (2) यच्चास्यां भूतानि गच्छन्ति अर्थात् इस पृथिवी पर सभी प्राणी गमन करते हैं या सभी प्राणियोंका यह आधार स्थल है। (३) गातेर्विकारो नामकरणः इसे गाङ् गतौ धातुसे ओ प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। इन्हीं निर्वचनोंसे पशु वाचक गोकी भी सिद्धि हो जायगी। पशु वाचक शब्द गम् धातुसे या गाङ् गतौसे माना जा सकता है। आदित्यके अर्थमें गोशब्दके निर्वचन प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि यह रसोंको अपनी ओर ले जाने वाला होता है (4) गमयति रसान्" इसके आधार पर गो शब्दमें गम् धातुका योग है। (5) गच्छति अन्तरिक्षे यह अन्तरिक्षमें गमन करता है। इसमें भी गम् धातुका योग है। गोका अर्थ द्यु लोक भी होता है (6) यत् पृथिव्याः अधिदूरंगता भवति" यह पृथिवी पर दूर तक गयी होती है। (7) यच्चास्यां ज्योतींषि गच्छन्ति" अर्थात् इस द्युलोकमें ज्यौतिषगण (नक्षत्रगण) गमन करते है।
यास्कके उपर्युक्त निर्वचनोंमें गम् धातु या गाङ् गतौ धातुका योग पाया जाता है। गम् धातुसे गो शब्द मानने पर ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत होता है। इस निर्वचनको आख्यातजसिद्धान्त पर आधारित माना जायगा। यास्कका यह निर्वचन भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे उपयुक्त है। गो का अर्थज्या (धनुष की डोरी) भी होता है। अगर गायकी तांतसे यह बनी हो तो इसे ताद्धित प्रयोग कहेंगे। अगर ज्या गायकी तांतसे नहीं बनी है तो (गमयति इषून् वाणान् इति गो) जो वाणोंको चलाती है उसे गो कहते हैं ऐसा करना होगा। उसे सादृश्यके द्वारा निर्मित भी माना जा सकता है। यद्यपि इसमें भी यास्क गम् धातुका भी योग मानते हैं। व्याकरणके अनुसार इसे गम् धातु + डो11 प्रत्यय कर बनाया जायगा।
१६०: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क