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अनुसार यह निर्वचन सर्वथा उपयुक्त है। इसमें ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक औचित्य है । व्याकरणके अनुसार इसे वी गतौ धातु + डित् 134 - वि बनाया जा सकता है। यास्क वि का अर्थ वाण भी करते हैं - अथापीषु नामेह भवति एतस्मादेव अर्थात् गत्यर्थक साम्यके आधार पर वि वाण का भी प्रतीक है क्योंकि वाणमें भी गति है [
(66) परुष :- इसका अर्थ होता है पर्ववाला या भास्वान् । आचार्य यास्क इसके निर्वचनमें औपमन्यवके सिद्वान्तको प्रस्तुत करते है - पर्ववती भास्वतीत्यौपमन्यव:'' अहोरात्रादिको पर्व कहा जाता है उससे युक्तको परुष कहा जायगा।'” लौकिक संस्कृतमें परुष कठोरका वाचक है। 138 यास्कने इसके लिए स्वयं कोई निर्वचन प्रस्तुत नहीं किया है। औपमन्यवका सिद्धान्त भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे पूर्ण उपयुक्त नहीं है। इसमें ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक संगति पूर्ण उपयुक्त नहीं है। व्याकरणके अनुसार इसे पृ पालन पूरणयोः तुसे उषच् प्रत्यय कर बनाया जा सकता है ।
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(67) भूरि :- भूरिका अर्थ अत्यधिक होता है । निरुक्तके अनुसार भूरीति वहुनः नामधेयम् । प्रभवतीतिसत : 14 भूरि बहुतका नाम है क्योंकि वह समर्थ होता है । इस निर्वचनके अनुसार भूरि शब्दमें भू धातुका योग माना गया है जो सर्वथा उपयुक्त है । ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे भी यह निर्वचन सर्वथा संगत है । व्याकरणके अनुसार इसे भू सत्तायाम् प्राप्तौ + क्रिन् " प्रत्यय कर बनाया जा सकता है ।
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(68) शृंगम् :- इसके कई अर्थ होते है - सींग, शिखर आदि । 142 यास्क इसके लिए कई निर्वचन प्रस्तुत करते है - (1) शृंग श्रयतेर्वा 14° यह शब्द श्रिञ् सेवायां धातुके योगसे बनता है। क्योंकि शृंग सिरके आश्रयमें रहता है । (2) शृणातेर्वा इसके अनुसार शृंग शब्दमें हिंसार्थक शृ धातुका योग है क्योंकि पशु सींगसे हिंसा करता है या मारता है। (3) शम्नातेर्वा 140 इसके अनुसार शृंगमें उपशमनार्थक शम् धातुका योग है क्योंकि पशु सिंगसे मारकर दूसरोंको शान्त कर देते है । (4) शरणाय उद्गमतीति इसके अनुसार इसका अर्थ होता है – रक्षाके लिए ऊपर निकले रहते है इसमें शृ + गम् धातुका योग है । (5) शिरसो निर्गतमितिवा 140 इसके अनुसार इसमें शिर + गम्का योग हैं
१६४ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क