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जायगा । क्योंकि सांप भी गमन करता है। निर्हृसितोपसर्गः आहन्तीति226 आ + हन् धातुसे आ उपसर्ग को ह्रस्व कर अ + हन् - अहिः होगा । वह अपने दंशसे मार डालता है। 227 अर्थात्मक दृष्टिकोणसे सभी निर्वचन उपयुक्त हैं। आङ् + हन् धातुसे अहिःमें उपयुक्त ध्वन्यात्मकता है । भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे अंतिम निर्वचन संगत है। व्याकरणके अनुसार आ + हन् हिंसागत्यौ 229 इण् - अहिः बनाया जा सकता है ।
(104) पणि:- इसका अर्थ वणिक् होता है। निरुक्तुके अनुसार पंगे: पणनात् 226 अर्थात् पणन् या व्यापार क्रिया करनेसे प्रणि कहलाता है ! इसके अनुसार पणिः शब्दमें पण् व्यवहारे धातुका योग है। भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे यह निर्वचन उपयुक्त है। पण्से निष्पन्न आपण - बाजार, पण्य वीथो. पण्य आदि शब्द प्रचलित हैं ।
(105) विलम् :- विलका अर्ध विवर होता है। निरुक्तंके अनुसार बिलं भरं भवति' अर्थात् विल भर होता है। भर शब्द ड्रभृञ् भरणें धातुसे बनता है । विल जल आदिसे भर जाता है इसलिए विल कहलाता है। भरव. ही भल होकर विलहो गया है। डुभ्ञ् धारण पोषणयोः धातुसे भिलं विलं शब्द बनाना उपयुक्त होगा । यास्कके इस निर्वचनमें स्वर्गत एवं व्यंजनगत औदासिन्य है 229 अर्थात्मक आधार इसका उपयुक्त है । भाषा विज्ञानके अनुसार इसे पूर्ण संगत नहीं माना जायगा । व्याकरणके अनुसार विल् भेदने धातुसे कः प्रत्यग कर विलम् शब्द बनाया जा सकता है।
(106) वृत्र :- इसका अर्थ मेध होता है । 21 ऐतिहासिकोंके अनुसार त्वष्टाके पुत्र असुरका भी नाम वृत्र है | 232 निरुक्तके अनुसार वृत्रः वणोतेर्वा 233 अर्थात् वृत्र शब्द वृञ् आच्छादने धातु से बनता है। मेघ आकाशको आच्छादित कर लेता है ।224 (2) वर्ततेर्वा23 अर्थात् यह शब्द गत्यर्थक वृतु धातुसे बनता है क्योंकि वृत्र गमन करता है । (3) वर्द्धतेर्वा” अर्थात् यह शब्द वृधु धातुसे बनता है क्योंकि यह वृत्र वर्षा ऋतुमें काफी बढ़ता है । वह आकाशको ढक लेता है इसलिए वृत्रका वृत्रत्व है। वह नीचेकी ओर अग्रसर रहता है यही वृत्रका वृत्रत्व है तथा वह वृद्धिको प्राप्त करता है यही वृत्रका वृत्रत्व है। यास्कके प्रथम दो निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार रखते हैं। अंतिम निर्वचन में मात्र
१७९ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क