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तूर्णमेतदायान्तिः५ अर्थात् इस पर मनुष्य जल्दी-जल्दी आते रहते हैं। इसके अनुसार तुम्व शब्द में तुर् गतौ धातुका योग है। ध्वन्यात्मक दृष्टि से यह निर्वचन पूर्ण उपयुक्त नहीं है। अर्थात्मक आधार इसका संगत है।
(५६) नंसन्ते :- यास्क इसका अर्थ ही प्रस्तुत करते हैं। इसका अर्थ होता है प्रणाम करते हैं। इसका निर्वचन प्रस्तुत नहीं किया गया है।
(५७) आहनस :- इसका अर्थ होता है वंचक या सम्मोहक। निरुक्तके अनुसार आहनसः आहनवन्तः वंचनवन्त:६५ अर्थात् आहनवन्तः शब्द में आ +हन् धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्राय: नहीं देखा जाता है। ..
(५८) शुन्थ्यु :- यह आदित्यका वाचक है। नियतके अनुसार (१) शुन्ध्युरादित्यो भवति। शोधनातः५ अर्थात् शुन्ध्युः शब्दमें शुन्ध शुद्धौ धातुका योग है। इसके अनुसार सुन्ध्युः जगत् को शुद्ध करने वाला है। (२) शकुनिरपि शुन्ध्युरूच्यते शोधनादेव६५ अर्थात् पक्षीको भी शुन्ध्यु कहते हैं। शुद्ध करने के कारण ही पक्षी को शुन्ध्यु कहा जाता है। इसके अनुसार भी इसमें शुन्ध शुद्धौ धातुका योग है। उदकचरोभवति अर्थात् उदक्में चलने वाला या उदकके ऊपर चलने वाला होता है। उदकचर पक्षी से जलमें रहने वाले पक्षीका बोध होता है। (३) आपोऽपि शुन्ध्यव उच्यन्ते शोधनादेव' अर्थात् जलको भी सुन्ध्यु कहते हैं क्योंकि यह भी शुद्ध करता है या पवित्र कर देता है। सूर्य, पक्षी एवं जल तीनोंके लिए शुन्ध्यु शब्दका प्रयोग होता है। ये तीनों ही पवित्र करने वाले या शुद्ध करने पाले हैं। इन निर्वचनोंसे स्पष्ट है कि तीनों ही से वातावरण शुद्ध एवं पवित्र बनता है। ये निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त हैं। कर्म सादृश्यके आधार पर ही यह शब्द तीन अर्थों का वाचक है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से इसे उपयुक्त माना जायगा।
(५९) वक्ष :- इसका अर्थ होता है-छाती। निरुक्तके अनुसार अध्यूढं काये६५ अर्थात् वह शरीर पर अध्यूढ़ होता है या चढ़ा होता है। इसके अनुसार वक्षस् शब्दमें वह धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार इसे वक्ष संघाते +असुन८७ प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। भाषा विज्ञानके अनुसार भी इसे उपयुक्त माना जाएगा।
(६०) नोधा :- यह ऋषि का वाचक है। निरुक्तके अनुसार नोधा ऋषि-र्भवति।
२६२ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क