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है। इस निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से इसे उपयुक्त माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार-रज् +असुन्११९ = रजस् शब्द बनाया जा सकता है। दुर्गाचार्य ने रंज से रज की व्युत्पत्ति मानकर अपने प्रकाश से द्रव्यों को प्रकाशित करने के कारण स्ज का अर्थ प्रकाश किया है। इसी प्रकार अपने स्निग्धगुणसे अनुरंजित करने के कारण जल को रज, तथा प्राणियों के उनमें 'अनुरक्त होने के कारण लोकको स्ज कहा है।१२० लोकमें आर्तव , पराग, रेणु, गुण आदि के अर्थमें रजः का प्रयोग होता है।
(८१) हर :- यह शब्द अनेकार्थक है। ज्योतिः, उदक, लोक, रक्त एवं दिन हरः कहे जाते हैं।१२१ निरुक्तके अनुसार - हरी हरते ४ अर्थात् हरः शब्द हृञ् हरणे धातुसे निष्पन्न होता है। ज्योतिको हर इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह अन्धकार को हरण करती है। उदकको हर इसलिए कहते हैं क्योंकि व्यक्ति उसे हरण करता है लोक को हर इसलिए कहा जाता है क्योंकि लोक क्षीण पुण्य मयों को स्वर्ग से हरण करता है। रूधिर को हर इसलिए कहते हैं क्योंकि वह क्षीणता का हरण करता है१२२ तथा दिमको हर इसलिए कहते हैं क्योंकि वह अन्धकारका हरण करता है। हृहरणे धासु से हर: शब्द मानने पर ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक संमति उपयुक्त रहती है। अनेक अर्थों में इसका प्रयोग गुणसाम्य या क्रिया साम्य के कारण हुआ है। इसे आख्यातज सिद्धान्त पर आधारित माना जा सकता है। व्याकरणके अनुसार हृञ् हरणे धातुसे अच्१२३ प्रत्यय कर हरः शब्द बनाया जा सकता है।
(८२) जुहरे :- यह अनवगत संस्कार वाला पद है। इसका अर्थ होता है यज्ञ करता है। निरुक्तके अनुसार-जुहुरे खुहिवरे४ अर्थात् जुहुरे शब्द में हुधातुका योग है। यह निर्वचन स्पष्ट है। इसका अर्थात्मक महत्व है। निर्वचनकी प्रक्रिया से इसे अपूर्ण माना जाएगा।
(८३) व्यन्त :- यह अमेकार्थक है। यास्क व्यन्त के अनेक अर्थों में मात्र प्रयोगका प्रदर्शन करते हैं। यह वी मतौ धातुसे बनता है। वेदोंमें यह देखना,१२४ खाना१२५ एवं अशन१२६ अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। लौकिक संस्कृतमें वी धातु गतिप्रजननकान्त्यशन खादनेषु अर्थोंमें प्रयुक्त होता है। यास्कने इसमें धातुका निर्देश नहीं किया है। लेकिन विभिन्न अर्थोके दर्शनसे वी धातु अनुमेय है। वी गतौ से व्यन्तः में ध्वन्यात्मकता एवं अर्थात्मकता का उचित योम है। यह निर्वचन अस्पष्ट है।
२६९ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क