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है कि वाशी शब्दमें वाश् धातुका योग है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जाएगा।
(६४) वाह :- निरुक्तमें वाहः शब्दका निर्वचन स्तुतिके अर्थमें हुआ है। (१) वाहः अभिवहन स्तुतिम् अर्थात् देवताओंकी स्तुतिमें प्रयुक्त ऋचाएं या देवताओंके आह्वानके लिए प्रयुक्त स्तुति। इसके अनुसार वाहः शब्दमें वह प्रापणे धातुका योग है। (२) अभिषवण प्रवादां स्तुति८५ अर्थात् अमिषकम के लिए प्रयुक्त स्तुति वाहः कहलाती है। वेदोंमें इसका प्रयोग दो रूपोंमें प्राप्त होता है। उत्तर पदके रूपमें इसका प्रयोग स्तुति तथा वहन करना अर्थमें हुआ है.९ तथा स्वतंत्र रूपमें इसका प्रयोग स्तुतिके अर्थमें।९० यास्कने वाहः का प्रयोग स्तुतिके अर्थमें ही किया है। उपर्युक्त निर्वचन कर्मकाण्डकी दृष्टि से दो अर्थों में किया गया है। प्रथम अभिवहन स्तुतिके अर्थमें तथा द्वितीय अभिषवण स्तुतिके अर्थमें वाहः व्युत्पन्न है। प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्त है। द्वितीय निर्वचनका मात्र अर्थात्मक महत्व है। व्याकरणके अनुसार वह प्रापणे र घञ्११ प्रत्यय कर या वाह् प्रयत्नेअच९२ प्रत्यय कर वाहः शब्द बनाया जा सकता है। कोष ग्रन्थों के अनुसार वाहः शब्द भुजा, मानभेद, अश्व, वृष, वायु आदि के लिए प्रयुक्त होता है। स्तुतिके अर्थमें वाहः शब्दका प्रयोग लौकिक संस्कृत में नहीं प्राप्त होता।
__ (६५) सुविते :- यह अनेकार्थक है। निरुक्तके अनुसार (१) सुविते सु इते अर्थात् अच्छा गमन वाला। इसके अनुसार इस शब्दमें सु +इण गतौ धातुका योंग है। (२) सते अर्थात् पैदा करती है। इसके अनुसार यह शब्द सू प्राणिगर्भ विमोचने धातुसे निष्पन्न होता है। सुगते प्रजायामिति वा९४ अर्थात् सु+झा गतौ धातुसे सुविते मानने पर इसका अर्थ होगा गमन करता है तथा सू प्राणिगर्भ विमाचने धातुसे सुविते शब्द मानने पर इसका अर्थ होगा प्रजाओंको उत्पन्न करता है।५ द्वितीय निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्त है। प्रथम निर्वचनका अर्थात्मक आधार उपयुक्त है लेकिन ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण उपयुक्त नहीं। सुविते शब्दका प्रयोग लौकिक संस्कृतमें प्रायः नहीं देखा जाता। सूतेके अनुसार सू धातुसे छान्दस इडागम कर सुविते शब्द बनाया जा सकता है।
(६६) दयते :- दयते शब्द अनेकार्थक है। इसमें दय् धातुका योग है। यास्क दयते का निर्वचन प्रस्तुत नहीं कर दय् धातुके विभिन्न अर्थों में प्रयोगका प्रदर्शन करते
२६४ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क