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नहीं मिल सके । यह कर्त्तव्यनिष्ठके अर्थमें प्रयुक्त होता है। उपर्युक्त निर्वचनके अनुसार पिं स्पर्धाका वाचक है तथा जव गति वाचक है - पि + जु गतौ - पिजवन । इसमें अन प्रत्यथ. है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे इसमें पूर्ण ध्वन्यात्मकताकाअभाव है। अर्थात्मक दृष्किोणसे यह उपयुक्त है।
(130) ऋतम् :- इसका अर्थ होता है जल । निरुक्तके अनुसार-प्रत्यृतं भवति अर्थात् यह सभी जगह गया हुआ या सभी जगह उपलब्ध होता है। इसके अनुसार ऋतम् शब्दमें ऋगतौधातुका योग है। ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिसे यह उपयुक्त है। ऋतम्के जलके अतिरिक्त सत्य आदि कई अर्थ होते हैं। व्याकरणके अनुसार इसे ऋगतौ धातुसे क्तया प्रत्यय कर बनाया जा सकता है।
(131) एव :- इसका अर्थ रक्षण या गमन होता है- एवैः अयनैरवनैर्वार अर्थात् यह शब्द इण् गतौ याअव्र क्षणेधातुके योगसे निष्पन्न होता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार इसे इण् गतौसे वन्य इण् + वन् प्रत्यय – एव बनाया जा सकता है । कोष ग्रन्थोंसे इसके उपमा, परिभव, ईषदर्थ, अवधारण आदि अर्थोका संकेत प्राप्त होता है।
(132) ऋतु:- इसका अर्थ समय होता है। निरुक्तके अनुसार- ऋतुः अर्तेः गति कर्मणः अर्थात् ऋतु शब्दऋ गतौ धातुसे निष्पन्न होता है क्योंकि इसका गमन होता रहता है, समय व्यतीत होता जाता है। इसका .. वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है।भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे यह संगत है। लौकिक संस्कृतमें ऋतु वसन्तादि छः ऋतुओंका द्योतक है जो वैदिक ऋतुका अर्थ संकोच माना जा सकता है। इसका निर्वचन भी इसी तरह होगा क्योंकि यह भी व्यतीत होता रहता है। स्त्रियोंके मासिक धर्मके लिए भी ऋतु शब्दका प्रयोग होता है। निर्धारित समयसे सम्बद्ध होनेके कारण इसके लिए भी उपर्युक्त निर्वचन ही उपयुक्त होगा। व्याकरणके अनुसार ऋ गतौ + तुः प्रत्यय कर इसे बनाया जा सकता है। 16
(133) मुहु:- इसका अर्थ होता है-थोड़ा समय । निरुक्तके अनुसार - मुहुः मूढ इव कालः अर्थात् मूढ़के समान समय । इतना कम समय जिसका
१८६ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क