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हानौ धातुका योग स्पष्ट होता है। इस शब्दका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे यह संगत माना जाएगा। लोकमें जार का अर्थ सम्प्रति उपपति होता है। निरुक्तमें भी जार उपपति का वाचक है।८६ उपपति अर्थ प्राकृतिक सादृश्य के आधार पर हुआ होगा। भाषा विज्ञानके अनुसार इस शब्दमें अर्थापकर्ष माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार जु वयोहानौ धातु से घञ् प्रत्यय करने पर जारः शब्द बनाया जा सकता है।
(७१) स्वसा :- इसका अर्थ होता है वहना८७ निरुक्तमें इसके कई निर्वचन प्राप्त होते हैं(१) साहचर्याद्वा अर्थात् साथ-साथ रहनेके कारण स्वसा कहलाती है। उषा सूर्यकी स्वसा मानी गयी है क्योंकि वे दोनों साथ-साथ रहते हैं। सामान्य वहन के अर्थ में भी इसी साहचर्य का आधान होगा। क्योंकि भाई एवं बहन का बचपन में साथ-साथ रहना होता है।८८ (२) रसहरणाद्वा अर्थात् रस हरण करनेके कारण भी स्वसा कहलाती है। सूर्य एवं उषा साथ रहनेके कारण प्रात:काल ओसकण को हरण करते हैं। ये दोनों निर्वचन अर्थात्मक महत्त्व रखते हैं। ध्वन्यात्मक दृष्टिकोणसे इन्हें उपयुक्त नहीं माना जाएगा। आगे चलकर यास्क स्वसा का निर्वचन प्रस्तुत करते हए कहते हैं-सुअसा८९ स्वसा अर्थात् अच्छी तरह मर्यादासे रहने वाली। स +असा = स्वसा शब्द के असामें अस् धातुका योग है। स्वेषु सीदतीतिवा९० अर्थात् अपने लोगोंमें (पितृ कुल के लोगों में) प्रसन्न रहती है। विवाहोपरान्त भी पितृ कुलसे सम्बन्ध बनाये रखती है। इसके अनुसार इसमें स्वा सद् विशरण गत्यवसादनेषु धातुका योग है। यास्कके अन्तिम दोनों निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोण से उपयुक्त हैं। व्याकरणके अनुसार सु + असु क्षेपणे + ऋन् प्रत्यय कर स्वसृ. स्वसा शब्द बनाया जा सकता है। स्वसृ का ही किंचित् ध्वन्यन्तर के साथ Sister शब्द आंगल भाषामें उक्त अर्थ में उपलब्ध होता है। यास्कके अन्तिम दोनों निर्वचनोंको भाषा विज्ञानके अनुसार संगत माना जाएगा।
(७२) भग :- भग कई अर्थों का वाचक है। स्त्री योनि के अर्थ में यास्क निर्वचन प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- भो भजते:६५ अर्थात् यह भज सेवायाम् धातु से निष्पन्न होता है क्योंकि इसका सेवन किया जाता है। यह निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोण से उपयुक्त है। निरुक्त में भग के तीन अर्थों में निर्वचन प्राप्त होते हैं- (१) भद्र के पर्याय के रूप में भज धातु से ही माना गया है। यह भज् धातु सेवा एवं प्राप्ति अर्थ में अभिप्रेत है। इन धातुओं से निष्पन्न मानने पर इसका अर्थ होगा श्रेष्ठ, पाने योग्य एवं सेवनीय- भद्रं भगेन
२२१: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क