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ही ११८ कहा है। अभीक शब्द में अभि- इण् धातु का योग है। यह निर्वचन अस्पष्ट है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी इसे उपयुक्त नहीं माना जाएगा।
(१०७) दभ्रम् :- इसका अर्थ होता है- अल्प। निरुक्तके अनुसार-दभ्रम् दभ्नातेः सुदम्भं भवति११८ अर्थात् दभ्र शब्द दम् दम्भने धातु से बनता है क्योंकि यह आसानी से नष्ट हो जाता है। दभ् धातु + रक्. = दभ्रम् । ध्वन्यात्मक दृष्टि से यह निर्वचन उपयुक्त है। अर्थात्मकता भी उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार दम्भ् दम्भे धातुसे रक्१५० प्रत्यय कर दभ्रंम् शब्द बनाया जा सकता है। भाषा विज्ञानके अनुसार भी यह उपयुक्त है।
(१०८) अर्मकम् :- अर्भकम् का अर्थ अल्प होता है । निरुक्तके अनुसार - अर्भकमवहृतं भवति११८ अर्थात् अर्भक छोटा होता है। इसके अनुसार अर्भकम् शब्द में अव + हृ धातु का योग है। इसका ध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त नहीं है। अर्थात्मक दृष्टि से यह उपयुक्त है। लोकमें अर्भक का अर्थ बच्चा भी होता । १५१ इसे अर्थ संकोच कहा जा सकता है छोटे के अर्थ में प्रयुक्त अर्भक लौकिक संस्कृत में बालक आदि के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। यह अर्थ संकोच का परिणाम है। व्याकरण के अनुसार ऋ गतौ१५२ +म +कन्१५३ प्रत्यय कर अर्भकः शब्द बनाया जा सकता है।
- (१०९) तिरस् :- इसका अर्थ होता है प्राप्त । निरुक्तके अनुसार तिरस्तीर्ण भवति११८ अर्थात् वह दूर तक पार कर चुका रहता है । १५४ इसके अनुसार तिरस् शब्द में तृ प्लवन संतरणयोः धातुका योग है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। लौकिक संस्कृत में तिरस् का अर्थ छिपना एवं तिर्यक् होता है । १५५ व्याकरणके अनुसार तृ प्लवनतरणयो: धातुसे असुन १५६ प्रत्यय कर तिरस् शब्द बनाया जा सकता है। भाषा विज्ञानके अनुसार भी यह संगत है। (११०) सतः :- सतः का अर्थ होता है- प्राप्त । निरुक्तके अनुसार-सतः संसृतं भवति अर्थात् सत एक साथ गया हुआ होता है । १५° इसके अनुसार संतः शब्द में सृ गतौ धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण उपयुक्त नहीं है। अर्थात्मक दृष्टिकोण से यह पूर्ण उपयुक्त है।
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(१११) त्व :- यह अर्द्ध का वाचक है। निरुक्त के अनुसार - त्वोऽपतत: ११८ अर्थात् यह पूर्णतया फैला नहीं होता है, आधा होता है। सम्पूर्णसे अलग होकर फैला होता है । १५८ इसकेअनुसार इसमें तन् धातुका योग है। अर्थात्मक दृष्टिसे यह संगत है।ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण उपयुक्त नहीं। व्याकरणके अनुसार तन्+वः प्रत्ययकर त्वः
२३३ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क