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भी सिंहके हिंसा की प्रवृत्ति स्पष्ट होती है। (४) संहाय हन्ति'१८ अर्थात् वह अपने को संकुचित करके दूसरों को मारता है. उसके अनुसार भी सिंह शब्द में सम् + हन् धातुका योग है। सभी निर्वचनोंमें धातु की स्थिति वर्तमान रहती है। डा. वर्मा के अनुसार यह निर्वचन आख्यातज सिद्धान्त पर आधारित है।१२८ निरुक्तकी प्रक्रियाके अनुसार द्वितीय निर्वचन उपयुक्त है जिसमें वर्ण व्यत्यय का सहारा लिया गया है।१२९ शेष निर्वचनों का भी ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है। अर्थात्मक आधार सिंह की हिंसात्मक प्रकृतिको स्पष्ट करता है। व्याकरणके अनुसार सिच् +क: (सिच् +ह +क: = सिंह) प्रत्यय कर यह शब्द बनाया जा सकता है।१३० सिंह शब्द वीरत्व गुणके चलते कालान्तरमें श्रेष्ठका वाचक हो गया है।३० यथा पुरूष सिंहः
(९३) व्याघ्र :- व्याघ: पशु विशेष का वाचक है हिन्दी भाषा में उसे वाघ कहा जाता है। निरुक्तके अनुसार व्याघ्रो व्याघ्राणात११ अर्थात् विशिष्ट घाण ग्रहण करने के कारण व्याघ्र कहलाता है। व्याघ्र में घ्राण शक्ति अधिक होती है इसके अनुसार व्याघ्र शब्द में वि +आ +घ्रा धातु का योग है। व्याघ्र को मनुष्य या पशुओं की गंध दूर से ही मिल जाती है। (२) व्यादाय हन्तीति वा११८ अर्थात् वह अपने शिकार को पकड़ कर मारता है। इसके अनुसार इस शब्द में वि+आ + हन धातका योग है। प्रथम दो उपसर्ग हैं वि.+आ- आदाय का वाचक है। दोनों निर्वचनों से व्याघ्र के हिंसक प्रवृति का स्पष्ट पता चल जाता है। व्याघकी गणना हिंसक पशुओंमें होती है। दोनों निर्वचनोंका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इन्हें सर्वथा संगत माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार वि + आ+ घा +क:१३१ प्रत्यय कर व्याघ्र शब्द बनाया जा सकता है। व्याघ्र शब्द वीरत्वगुण विशिष्टके चलते श्रेष्ठ अर्थका वाचक हो मया है- नरव्याघ:, पुरूष व्याघ: आदि।१३१०
(९४) मेघा :- यह एक धारणात्मिका शक्ति है। इसे कुछ अंशमै बुद्धिकी मी संज्ञा दी जा सकती है। निरुक्तके अनुसार-मेधा मती धीयतेप८ अर्थात् जिसे मति में धारण किया जाय उसे मेधा कहते हैं। इस निर्वचनके अनुसार मेधा शब्द में मति+धा धातुका योग है। मति+धा -मइधा-मेधा। मति+धा में मति का त वर्ण लोप तथा अ +इ मिलकर मे + धा-मेधा। यास्कके समय में अ + इ =ए सन्ध्यक्षर होगा। ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे यह निर्वचन उपयुक्त है। संहिताओंमें मेधा शब्दका व्यापक प्रयोग प्राप्त होता है। मेधाकी उपासनाप कर ऋषिगण अपनी धारणा शक्तिको बढ़ाते थे।
२२९ व्युत्पति विज्ञान और आचार्य यास्क