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जिससे विपुल विषयों को धारण करनेमें वे समर्थ होते थे।१३३ व्याकरणके अनुसार मेधृ धातुसे असुन् प्रत्यय कर मेधा शब्द व्युत्पन्न किया जा सकता है। भाषा विज्ञानके अनुसार यास्कके निर्वचनको संगत माना जाएगा।
(९५) मेधावी:- इसका अर्थ होता है मेधा शक्तिसे युक्त। निरुक्तके अनुसारमेधया तद्वान भवति११८ अर्थात् मेधासे जो युक्त होता है उसे मेधावी कहते हैं। इसके अनुसार मेधा +तद्वान् अर्थ में वी मेधावी है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार मेधा +विनि प्रत्यय कर मेधाविन्-मेधावी शब्द बनाया जा सकता है।१३४भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा।
(९६) स्तोता :- इसका अर्थ होता है स्तुति सम्पादन करने वाला। निरुक्तके अनुसार स्तोता स्तवनात् अर्थात् स्तवन क्रियाके कारण स्तोता कहलाता है। इसके अनुसार स्तोचा शब्दमें स्तु स्तुतौ धातुका योग है। स्तु-तृच्-स्तोतृ-स्तोता। ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोण से यह निर्वचन उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार इसे स्तु +तृच्१२५ प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा।
(९७) यज्ञ :- इसका अर्थ होता है यजन कर्म। निरुक्तमें इसके कई निर्वचन प्राप्त होते हैं.(१) प्रख्यातं यजतिं कर्मेति नैरुक्ता: अर्थात् नैरुक्त सम्प्रदायके अनुसार प्रख्यात यजन कर्मको यज्ञ कहते हैं। इसके अनुसार यज्ञ शब्दमें यज् धातुका योग है। याच्यो भवतीति वा अर्थात् इसमें याचना होती है। इसके अनुसार यज्ञ शब्द में याच् धातु का योग है। (३) यजुरुन्नो भवति अर्थात् यह यजुर्वेदके मंत्रोंसे क्लिन्न होता है। इसके अनुसार भी यज्ञ शब्दमें यज्ञ धातुका योग है। (४) वहुकृष्णाजिन इत्यौपमन्यवः अर्थात् आचार्य औपमन्यव का मत है कि इसमें बहुत कृष्णाजिनका उपयोग होता है। (५) यजूंष्येनं नयन्तीति वा१८ अर्थात् यजुः मन्त्र इसे सफलता प्राप्त कराते हैं। इसके अनुसार यजुः से सम्बन्ध होने के कारण यज्ञ माना गया। सभी निर्वचन अर्थात्मक दृष्टिसे उपयुक्त हैं। प्रथम निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से उपयुक्त है। द्वितीय निर्वचनमें ध्वनिगत शैथिल्य है। आचार्य औपमन्यव निर्वचनमें अजिनसे यज्ञ माना गया है। तै. संहिता में भी इसी प्रकार अजिन से यज्ञकी उपलब्धि होती है।१३६ व्याकरणके अनुसार यज् + न१३ प्रत्यय कर यज्ञ शब्द बनाया जा सकता है। निरुक्त के इन निर्वचनोंसे यजमें कृष्णाजिन का प्रयोग, यजुर्वेद के मन्त्रों से इसका सम्पादन, फलावाप्ति के लिए यज्ञ कर्म आदि का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है।
२३० : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क