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उपयुक्त माना जाएगा।
(४३) वियात :- इसका अर्थ होता है शत्रुओं को पीड़ा पहुंचाने वाला । वियात शब्द वधार्थक वि या धातुसे निष्पन्न है। निरुक्तके अनुसार वियातयत इतिवा अर्थात् जो शत्रुओं को यन्त्रणा देता है। वियातयेति बा ३५ अर्थात् शत्रुओं को विविध प्रकार से यातना दे, इस प्रकारकी बात जिसे कही जाए उसे विया कहते हैं। इसमें वि+ यत् धातु का योग है। यत् से णिच् कर यातय- वि + यतय् = क्यिात । वि + या वियात। ध्वन्यात्मक आधार इसका उपयुक्त है। अर्थात्मक आधार अप्रसिद्ध है। व्याकरण के अनुसार इसे वि + यत् + क्त प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। (४४) खण्ड :- खण्डका अर्थ भेद होता है। निरुक्तके अनुसार खण्डं खण्डयते:३५ अर्थात् जो भेदन किया जाय। इसके अनुसार इसमें भेदनार्थक खडि धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञान अनुसार यह संगत है। व्याकरणके अनुसार इसे खंडि भेदने धातुसे घञ् प्रत्यय कर बनाया जा सकता है।
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(४५) आखण्डल :- यह इन्द्रका वाचक है। निरुक्तके अनुसार- आखण्डयति३५ अर्थात् जो मेघ को खण्डखण्ड कर दें। (आभिमुख्येन अवस्थित यः खण्डयति मेघान् स आखण्डलः) इसके अनुसार आखण्डल शब्दमें आ + खडि भेदने धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है । व्याकरणके अनुसार इसे . आ + खडि, भेदने + अलच् प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। भाषा विज्ञानके. अनुसार इसे संगत माना जायगा।
(४६) तडित् : यह अन्तिक ( नजदीक) एवं वध का वाचक है। निरुक्त के अनुसार- ताडयतीति सतः अर्थात् यह शब्द तड् धातुसे निष्पन्न होता है तड् धातु समीप एवं वध दोनों अर्थोंको प्रकाशित करता है। इस आधार पर तडित् का अर्थ होगा जो निकट हो या जो आघात पहुंचाता हो । आचार्य शाकपूणि के अनुसार तडित् का अर्थ विद्युत् होता है सा ५८ ह्यवताडयति अर्थात् वह अवताड न करती है। इसके अनुसार यह शब्द तड् आघाते धातु से निष्पन्न होता है। दूराच्च दृश्यते ३५ अर्थात् वह दूर से ही दिखलायी पड़ती है। इससे अन्तिक का अर्थ स्पष्ट नहीं होता। यह मात्र अर्थात्मक संगति के लिए प्रस्तुत हुआ है। यास्क का निर्वचन तथा शाकपूणि का निर्वचन जो तड् धातु से माना गया है ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार से युक्त है। भाषा विज्ञान के
२१३ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क