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क्विप् प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। वच् + क्विप्-वाच-वाक् । दीर्घः
(121) शुष्मम् :- इसका अर्थ बल होता है। निरुक्तके अनुसार - शोषयतीति सत्: अर्थात् यहशुष् शोषणेधातुसे निष्पन्न होता है, क्योंकि यह शत्रुओंको सुखाता है। इसका ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण उपयुक्त है लेकिन अर्थात्मक आधार पूर्ण उपयुक्त नहीं है। व्याकरणके अनुसार शुष् शोषणे ६
तुसे मन् प्रत्यय कर शुष्म बनाया जा सकता है। (शुष्यत्येनारिः) अर्थात् इससे शत्रुओंको सुखाया जाता है। __(122) विसम् :- इसका अर्थ होता है कमलनाल । निरुक्तके अनुसार - बिसं विस्यतेर्भेदन कर्मणो वृद्धिकर्मणो वा57 अर्थात् यह भेदनार्थकं या वृद्धयर्थक विस् धातुसे निष्पन्न होता है। विस् धातु भेदनार्थक मानने पर यह कहाजा सकता है कि यह आसानीसे टूट जाता है तथा वृद्धयर्थक मानने पर कहाजा सकता है कि यह अत्यधिक बढ़ता है या यह पौष्टिक होता है। यह निर्वचनध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार पर उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार इसे विस् प्रेरणे धातुसे क:58 प्रत्यय कर बनाया जा सकता है।
(123) सानु :- इसका अर्थ होता है, शिखर, चोटी। निरुक्तके अनुसार (1) सानु समुच्छितं भवति अर्थात् यह (चोटी) उठी हुई होती है। इसके अनुसार इसमें सम् + उत् + श्रिधातुका योग है। (2) समुन्नुन्नम्-अर्थात् यह (चोटी) अच्छी तरह ऊपर गयी होती है। इसके अनुसार सानु शब्दमें सम् + उत् नुह तुका योग है। प्रथम निर्वचनकाध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त नहीं है। अर्थात्मक आधारसे दोनों युक्त हैं। द्वितीय निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार संगत है। व्याकरणके अनुसार षणु दाने धातुसे युण25 प्रत्यय कर सानु शब्द बनाया जा सकता है।
(124) उदकम् :- उदकका अर्थ जल होता है। निरुक्तके अनुसार उनत्तीति सतः अर्थात् उन्दी क्लेदने धातुसे उदक शब्द बनता है क्योंकि यह आर्द्र कर देता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार यह उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार उन्दी क्लेदने धातुसे क्वुन् प्रत्यय करने पर उदकम् शब्द बनता है।
(125) नदी :- नदी सरका वाचक है। निरुक्तके अनुसार - नदना
१८४ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क