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है।आप जलका वाचक है- अनाप- अनु-आप-अनूप | अंतिम निर्वचनमें यास्कका कहना है कि प्राक्के स्थान पर जैसे प्राचीन कहा जाता है वैसे ही अन्वाप के स्थान पर अनूप कहा जाता है यहां यास्कका उद्देश्य शब्द सादृश्यका प्रदर्शन करना भी है। इस निर्वचनमें शब्दगत सादृश्य पूर्ण उपयुक्त नहीं है क्योंकि अन्वापसे अनूपमें आ का ऊ हो गया है जवकि प्राक्से प्राचीनमें इस प्रकारका परिवर्तन नहीं देखा जाता | प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एव अर्थात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त है।अन्य सभी निर्वचनोंका अर्थात्मक महत्व है। व्याकरणके अनुसार इसे अनु+ अप् + अच् प्रत्यय कर बनाया जा सकता हैं।
(118) वृवूकम् :- यह जलका वाचक है। निरुक्तमें इसके लिए दो निर्वचन प्राप्त होते है। (1) व्रवीतेर्वा शब्द कर्मणः अर्थात् यह वृञ् यक्तायांवाचि धातुसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह शब्द करता है। (2) अंशतेर्वा अर्थात् यह भ्रंश् अवसंस्त्रणे धातुसे बनता है क्योंकि यह स्खलित होता रहता है। प्रथम निर्वचन का ध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त है। द्वितीय निर्वचन अर्थात्मक महत्त्व रखता है। ____(119) पुरीषम् :- निरुक्तमें यह जलके विशेषणके रूपमें प्रयुक्त हुआ है। इसके लिए दो निर्वचन प्राप्त होते है। () पुरीषं पृणात. अर्थात् यह प्रीञ् तर्पणेधातुसे निष्पन्न होता है क्योकि यह तृप्त करता है। (2) पूरयतेर्वा अर्थात् यह शब्द पूरी आप्यायने धातुसे निषन्न होता है क्योंकि यह बढ़ता रहता है। पूरी अप्यायने धातुसे पुरीषम् शब्द माननेमें ध्वन्यात्मक संगति उपयुक्त हैं। अर्थात्मक दृष्टिकोणसे दोनों निर्वचन उपयुक्त हैं ! लौकिक संस्कृतमें पुरीषका अर्थ विष्ठा होता है। व्याकरणके अनुसार इसे पृ पालन पूरणयोः धातु से ईषन् प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। इस शब्दमें अर्थपरिर्वतन स्पष्ट है।
(120) वाक् :- यह वाणीका वाचक है। निरुक्तके अनुसार-वचे:53 अर्थात् यह वच् परिभाषणेधातुसे बनता है। जो वोला जाय उसे वाक् कहते है। इस में वच् धातु स्थित च का क् हो गया है भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे यह निर्वचन सर्वथा उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार इसे वच् परिभाषणे धातु से
१८३ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क