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निर्वचन प्रस्तुत किये है अश्वः अश्नुते अध्वानम् अर्थात् वह मार्गको शीध व्याप्त कर लेता है । इस आधार पर अश्वशब्दमें अश् व्याप्तौ धातुका योग माना जायगा । महाशनो भवति अर्थात् वह अधिक खाने वाला होता है। इस आधार पर अश्व शब्दमें अश् भोजने धातुका योग माना जायगा । यह आख्यातज सिद्धान्त पर आधारित है। इन निर्वचनोंका ध्वन्यात्मक एव अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषाविज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा । व्याकरणके अनुसार अशूव्याप्तौ धातुसे क्वन प्रत्ययके द्वारा अश्व शब्द बनाया जा सकता है।
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(141) दधिक्रा :- इसका अर्थ होता है. घोड़ा। निरुक्तके अनुसार (1) दधत् क्रामतीतिवा284 अर्थात् वह बैठते ही चल पड़ता है। इनके अनुसार इस शब्दमें धा + क्रा धातुका योग है। धा दध् + क्रा – दधिक्रा । (2) दधत् क्रन्दतीतिवा” अर्थात् धारण करते (चढ़ते) ही वह हिनहिनाता रहता है। इसके अनुसार धा + क्रन्द् धातुके योगसे यह शब्द निष्पन्न माना जाता है । (३) दधत् आकारी भवतीति वा289 अर्थात् धारण करतेही वह आकार ग्रहण कर लेता है । ये निर्वचन पूर्ण स्पष्ट नही हैं। दधिक्रा शब्दका अंतिम खण्ड क्रा क्रमशः क्रन्दति तथा आकारी भवतिका द्योतक है। इस शब्दकें निर्वचनमें ध्वन्यात्मक औदासिन्य है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे पूर्ण संगत नहीं माना जायगा । निर्वाचन प्रक्रियाके अनुसार यह पूर्ण संगत है।
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(142) ग्रीवा :- ग्रीवाका अर्थ होता है गला । निरुक्तमें इसके लिए कई निर्वचन प्राप्त होते है - (1) गिरतेर्वा अर्थात् यह गृ निगरणे धातुके योगसे बना है। इससे अन्नका निगरण होता है। (2) गृणातेर्वा अर्थात 22 यह शब्द गृ शब्दे धातुके योगसे बना है क्योंकि इससे शब्द किया जाता है । (3) गृह्णातेर्वा अर्थात् यह शब्द ग्रह् ग्रहणे धातुके योगसे बना है क्योंकि इससे जल आदि ग्रहण किया जाता है। डा० वर्माके अनुसार गृ धातुसे ग्रीवाका निर्वचन भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे उपयुक्त है । 290 अर्थात्मक आधार सभी निर्वचनोंका उपयुक्त है । प्रथम एव द्वितीय निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार भी संगत है । व्याकरणके अनुसार गृ निगरणे धातुसे वन्' प्रत्यय कर ग्रीवा शब्द बनाया जा सकता है। ग्रीवा शब्दके निर्वचनमें यास्क उसकी क्रियाको ही अर्थात्मकता का आधार
१५ व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क