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निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टिसे संगत नहीं हैं यही कारण है कि भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे इनके सभी निर्वचनोंको पूर्ण संगत नहीं माना जा सकता।
निरुक्तके तृतीय अध्यायके निर्वचनोंका पृथक् परिशीलन द्रष्टव्य है :
(१) कर्म :- कर्म का अर्थ होता है काम। निरुक्तके अनुसार-क्रियत इति सत: अर्थात् यह किया जाता है। इस निर्वचनके अनुसार कर्म शब्दमें कृञ् करणे धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार सर्वथा संगत है। भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे यह उपयुक्त है एवं भाषा वैज्ञानिक नियमोंके अनुकूल है। व्याकरणके अनुसार कृञ् करणे धातुसे मनिन् प्रत्यय कर कर्मन् कर्म शब्द बनाया जा सकता है।
(२) अपत्यम् :- इसका अर्थ सन्तान होता है। निरुक्तमें इसके दो निर्वचन प्राप्त होते हैं।- (१) अपततं भवति' अर्थात् जो नीचे फैली होती है। इसके अनुसार इसमें अपतत का योग है। अप का अर्थ होता है नीचे की ओर तथा तत का फैलना। इस आधार पर अपत्यका अन्तिम खण्ड त्य तत का वाचक है। पिता एवं मातासे आकर अलग विस्तृत होता है। उसके भी वंश चलते हैं। (२) नानेन पततीति वा अर्थात् इससे पितर नरकमें नहीं जाते। इसके अनुसार इसमें न-अपद् गतौ धातुका योग है अपत्य अपत्य। पुरुषके नहीं गिरनेका तात्पर्य धार्मिक दृष्टिकोण पर आधारित है। पुत्रके होने से व्यक्तिको पुन्नामक नरकमें गिरने का भय नहीं रहता।। यह निर्वचन प्रसिद्ध, संगत एवं प्राचीन कालसे ही प्रचलित है। लौकिक संस्कृतमें भी यह इसी अर्थमें प्रचलित है। इसे अविद्यमानं पतनं येन तदपत्यम ऐसा भी किया जा सकता है। भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे भी यह निर्वचन सर्वथा संगत है। व्याकरणके अनुसार पत्लु गतौ धातु से य:५ प्रत्यय कर अ+पत्+य: = अपत्य : शब्द बनाया जा सकता है।
(३) अरण :- इसका अर्थ होता है जो पिताके ऋण का भागी न हो, पुत्र विशेष। निरुक्तके अनुसार-अरण: अपा) भवति अर्थात् अरण अपार्ण होता है। अपार्ण का अर्थ होता है- अपगत ऋण। अरण का अर्थ उपजलोदक सम्बन्ध या पर कलज भी किया जा सकता है। तर्पण.आदि का अधिकार ऐसे पुत्रको नहीं रहता। अरण शब्दमें अ+ऋण शब्द खण्ड हैं। अ अपगत का वाचक नञ् अर्थ वाना है तथा ऋण पितृ ऋण आदि का वाचक है। लौकिक संस्कृतमें इस शब्दका प्रयोग प्राय: नहीं प्राप्त होता। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे यह निर्वचन उपयुक्त है।
(४) रेक्ण : रेक्ण शब्द धनका वाचक है। निरुक्तके अनुसार - रिच्यतेप्रयत:
१९९ व्युत्पत्ति विज्ञान और भागार यास्क