________________
शब्दे धातुके योगसे बना है। वे प्रायः शब्द करते रहते थे या चिल्लाते रहते थे (2) क्रंशतेर्वास्यात् प्रकाशयति कर्मणः अर्थात् यह शब्द प्रकाश अर्थ वाले क्रश् धातुके योगसे बनता है ये उत्तम कर्मोको प्रकाशित करते हैं अतः क्रंश-कुशिक। (3) साधु निक्रोशयितानामर्थानामितिवा अर्थात् धनके लिए वचन देने वाला। इसके अनुसार भी इसमें क्रुश्धातुका योग है। प्रथम निर्वचन पुरूषकी प्रकृतिका आधार मानकर किया गया है द्वितीयमें उसके कर्मोको आधार माना गया है। अर्थात्मक दृष्टिसे सभी निर्वचन उपयुक्त हैं। प्रथम एवं तृतीय निर्वचनोंका ६ वन्यात्मक आधार भी संगत है। लौकिक संस्कृतमें प्रथम निर्वचनके आधार पर ही कुशिकका अर्थ उल्लू माना गया है। व्याकरणके अनुसार – कुश् + ठन् प्रत्यय कर कुशिकः शब्द बनाया जा सकता है।
(138) पाणि :- पाणिका अर्थ हाथ होता है। निरुक्तके अनुसार - पणायतेः पूजाकर्मण:284 अर्थात् यह शब्द पूजार्थक पण् धातुसे बनता है। पण् धातु व्यवहार परक है। उस समय हाथका उपयोग प्रायः पूजा कर्मके लिए अधिक होता होगा। कालान्तरमें इस शब्दका अर्थ विस्तार हो गया है। आज भी हाथका व्यवहार कार्योके लिए अधिक होता है। इसके ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त हैं। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से यह निर्वचन सर्वथा संगत है। व्याकरणके आधार पर भी पण् व्यवहारे धातुसे इण85 प्रत्यय कर पाणिः शब्द बनाया जाता है।
(139) उर्वी :- उर्वीका अर्थ होता है-विस्तृत । उर्व्यः ऊर्णोते. अर्थात् यह शब्द ऊर्गुञ् आच्छादने धातुसे बनता है क्योंकि वह अत्यधिक आच्छादन किए रहता है- इस निर्वचनके प्रसंगमें यास्क आचार्य और्णवाभके सिद्धान्त का उपस्थापन करते हैं- वृणोतेंरित्यौर्णनाभः अर्थात् और्णवाभके अनुसार यह शब्द वृञ् आच्छादने धातुके योगसे निष्पन्न होता है। वृञ् धातुके व का उ सम्प्रसारणके द्वारा हो जाता है तथा उर्वी शब्द बनता है।भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे दोनों निर्वचन उपयुक्त हैं। लौकिक संस्कृतमें उर्वी पृथ्वीका वाचक है। व्याकरणके अनुसार-ऊणुञ्आच्छादने धातुसे उ:287 ङीष् प्रत्यय कर उर्वी शब्द बनाया जा सकता है इस शब्दका अर्थ विकास हुआ है। .
(140) अश्व :- इसका अर्थ घोड़ा होता है। यास्कने इसके लिए दो
१८८ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क