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अर्थात्मक संगति है। भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे प्रथम दोनों निर्वचन उपयुक्त हैं। त्वाट्र असुरके पक्षमें भी ये ही निर्वचन उपयुक्त हैं। व्याकरणके अनुसार वृत्र शब्द वृत् वरणे धातुसे रक् प्रत्यय करने पर बनता है।
(107) रात्रि :- रात्रिका अर्थ रात होता है। इसके लिए निरुक्तमें कई निर्वचन प्राप्त होते है (1) प्ररमयति भूतानिनक्तंचारीणि अर्थात् रात्रिमें विचरण करने वाले प्राणीको यह प्रसन्न करती है। पिशाच, चौर आदि रात्रिमें विचरण करते है इसीलिए उन्हें रात्रिंचर कहा जाता है। इसके अनुसार रात्रि शब्दमें रम् धातुका योग है - रम् + त्रि – रात्रिः (2) उपरमयतीतराणि ध्रुवी करोति26 अर्थात् दूसरे प्रणियोंको कार्यसे उपरत कर देती है तथा उन्हें ध्रुव करती है या स्थिर करती है। दिनमें कार्य करनेके बाद प्राणी रात्रि विश्राम कर अपनी खोयी हुई शक्ति पुनः प्राप्त कर लेते है फलतः वह स्वस्थ या दीर्घायु होता है। इसके अनुसार भी इसमें रम् धातुका योग है। (3) रातेर्वास्याद्दान कर्मण:237 अर्थात् रात्रि शब्द रा दाने धातुसे बना है क्योंकि इसमें ओसका दान किया जाता है-प्रदीयन्तेऽस्यामवश्यायाः37 | यास्कके इन निर्वचनोंका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है । व्याकरणके अनुसार रादाने धातुसे त्रिप्238 प्रत्यय कर रात्रिः बनाया जा सकता है।
(108) उषस् :- रात्रिके अंतिम कालको उषा कहते है। निरुक्तके अनुसार उच्छतीति सत्या रात्रेरपरः काल:237 यह रात्रिका पश्चात भाग है यह अन्धकारको हटाती है। इसके अनुसार उष् शब्दमें उच्छी विवासे धातुका योग है। भाषा विज्ञानके अनुसार उष्का ही विस्तार रूप उच्छं है। यह निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार इसे उष दाहेधातुसे अस् 3 प्रत्यय कर बनाया जा सकता है-उष् + अस्-उषस् ।
(109) योनि :- इसका अर्थ स्थान होता है। निरुक्तके अनुसार अभियुतो240 भवति अर्थात् जिसमें विधान होता है उसके साथ मिला रहता है। स्त्री योनिः भी इसी निर्वचनसे हो जायगा । अभियुत एनां गर्भ:240 अर्थात् स्त्री योनि गर्भसे मिश्रीभूत है। योनिःअन्तरिक्षको भी कहा गया है- परिवीत वायुना240 अर्थात् यह वायुसे परिवेष्टित है। स्त्री योनिके अर्थमें स्नावा मांसेन च परियुतो भवति। अर्थात् स्त्री योनि स्नायु एवं मांससे परिवृत होती है।
१८० : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क