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(87) आदित्य :- इसका अर्थ सूर्य होता है। निरुक्तमें इसके लिए कई निर्वचन प्राप्त होते हैं- (1) आदत्ते रसान् अर्थात् यह रसोंको ग्रहण करता है। सूर्य की किरणोंसे जल सोख लिए जाते हैं इसके अनुसार आदित्य शब्दमें आ+दाधातुका योग है । (2) आदत्ते भासं ज्योतिषाम् अर्थात् यह नक्षत्रोंकी दीप्तिको ले लेता है। इसके अनुसार भी आदित्य शब्दमें आ+ - दाधातुका योग है। (3) आदिप्तो भासा + इतिवा' अर्थात् यह प्रकाशसे आवृत्त है। इसके अनुसार आदित्य शब्दमें आ+ दीप् दीप्तौ धातुका योग है। (4)अदितेः पुत्र इति वा' अर्थात् यह अदितिका पुत्र है। यह निर्वचन ऐतिहासिक आधार पर आध पारित है एवं तद्धित प्रयोमसे निष्पन्न है। तृतीय निर्वचन आकृतिमूलक है |भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे आउपसर्ग है तथा दिधातु । इसमें त्य प्रत्यय लगकर आदित्य शब्द बना है। दिधातुकी प्राप्ति दिन शब्दमें हो जाती है। अर्थात्मक आधार पर सभी निर्वचन उपयुक्त हैं । व्याकरणके अनुसार इसे अदिति + ण्यः प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। अदितिके सात पुत्र है- सूर्य,मित्र, वरूण,अर्यमा, दक्ष, भग एवं अंश । इन सबोंकी आदित्य संज्ञा है। निरुक्तका चतुर्थ निर्वचन इसी ऐतिहासिकतासे सम्बद्ध है।
(88) व्रतम् :- व्रत कर्मका नाम है। निरुक्तमें कई अर्थोमें इसका निर्वचन हुआ है। (1) व्रतमितिकर्मनाम वृणोतीतिसतः188 अर्थात् कर्म अर्थमें व्रत वृञ् आच्छादने धातुसे माना जायगा क्योंकि यह कर्मे मनुष्यों को शुभाशुभ फलोंसे आच्छादित कर देता है। व्रतका दूसरा अर्थ निवृत्तिपरक होता है-यम नियमादि (2) इदमपीतरव्रतमेतस्मादेव निवृत्तिकर्मवारय-तीतिसत:18 अर्थात् यह दूसरा निवृत्तिपरक यम नियमादि अर्थवाला व्रत भी वृधातुसे ही बनता है यह मनुष्योंको अकर्मसे हटाता है। (3) अन्नमपिव्रतमुच्यते यदावृणोतिशरीरम् अर्थात् अन्नको भी व्रत कहा जाता है क्योंकि वह शरीरको आच्छाद्रित करता है। इसके अनुसार भी व्रतमें वृञ् आच्छादने धातु का योग है क्योंकि अन्नसे व्यक्ति का शरीर पुष्ट होता है। वृञ् आच्छादन से व्रत शब्दमें ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त प्रतीत होता है भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे यह निर्वचन उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार वृधातुसे अतच् प्रत्यय करने पर या वृधातुसे अतच् प्रत्यय करने पर व्रत शब्द बनेगा ।120
१७२ : व्युत्पत्तिं विज्ञान और आचार्य यास्क