________________
1
191
(89) स्व :- इसका अर्थ आदित्य होता है । निरुक्तमें इसके लिए कई निर्वचन प्राप्त होते है - (1) स्वरादित्यो भवति सुअरण: " अर्थात् आदित्य अर्थमें स्व: शब्द सु + ऋ गतौके योगसे निष्पन्न है सु + ऋ - अर् - स्वर् - इसके अनुसार इसका अर्थ होगा सुन्दर गमन करता है। (2) सु ईरण: " अर्थात् अन्धकारको भगाने वाला या कर्मोंको प्रेरित करने वाला होता है। इसके अनुसार इसमें सु + ईर् धातुका योग है। (3) स्वृतो रसान् "" अर्थात् यह सभी रसोंको ग्रहण करनेके लिए गया होता है। सूर्य अपनी किरणोंसे रस (जल आदि) ग्रहण कर लेता है। इसके अनुसार इसमें स्वृ धातुका योग है । (4) स्वृतो भासं ज्योतिषाम्”' अर्थात् यह सभी नक्षत्रोंके प्रकाशके प्रति गया होता है। इसके अनुसार भी इसमें स्वृ धातुका योग है। (5) स्वृतो भाषा इति वा " अर्थात् यह प्रकाशसे घिरा होता है। इसके अनुसार भी इसमें स्वृ धातुका योग है। प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त है। शेष सभी निर्वचन अर्थात्मक महत्त्व रखते है। अंतिम निर्वचन आकृति मूलक है। भाषा विज्ञानके अनुसार प्रथम निर्वचनको ही उपयुक्त माना जायगा । भाषा विज्ञानके अनुसार स्वःमें सु धातु तथा अर् प्रत्यय मालूम पड़ता है। सूर्य शब्दमें यह धातु हमें प्राप्त होता है। व्याकरणकी दृष्टिसे स्वर अव्यय है। इसे स्वृ + विच् - स्वः बनाया जा सकता है । स्वः द्युलोकका भी वाचक है ।
(90) पृश्नि :- इसका अर्थ आदित्य होता है। निरुक्तमें इसके कई निर्वचन प्रस्तुत हैं – (1) पृश्निरादित्यो भवति प्राश्नुत एनं वर्ण इति नैरुक्ता: 192 अर्थात् निरुक्तकारोंके अनुसार इसे वर्ण व्याप्त किए रहते हैं। इसके अनुसार इस शब्दमें प्र + अशु व्याप्तौ धातुका योग है (2) संस्प्रष्टा रसान् 12 अर्थात् यह रसोंको अच्छी तरह स्पर्श करने वाला होता है। इसके अनुसार पृश्नि शब्दमें स्पृश् धातुका योग है। (3) संस्प्रष्टा भासं ज्योतिषाम्” अर्थात् नक्षत्रोंको वह अच्छी तरह स्पर्श करने वाला है। इसके अनुसार भी इस शब्दमें स्पृश् धातुका योग है। (4) संस्पृष्टाभासेतिवा1⁄2 अथवा यह दीप्ति प्रकाशसे संस्पृष्ट है। इसके अनुसार भी इस शब्दमें स्पृश् धातुका योग है। पृश्निका अर्थ द्युलोक भी होता है (5) अथ द्यौः संस्पृष्टा ज्योतिभिः पुण्यकृद्भिश्च” अर्थात् यह द्युलोक ज्योतियों एवं पुण्यवानोंसे स्पृष्ट है । यास्कके प्रथम एवं तृतीय निर्वचनको आकृतिमूलक कहा जा सकता है। स्पृश् धातु से नि प्रत्यय मानकर पृश्नि
१७३ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क