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अधिक उपयुक्त होगा क्योंकि क्त का ही विस्तार तप् में हुआ है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे यह निर्वचन उपयुक्त है। द्वितीय एवं तृतीय निर्वचनआकृति मूलक है।व्याकरणके अनुसार विश्+ कपन् (तृट्च) से बनाया जा सकता है।
(93) नभ :- नभका अर्थ आदित्य होता है। निरुक्तमें इसके लिए कई निर्वचन प्राप्त होते हैं- (1) नेता भासाम्' अर्थात् यह प्रकाशको ले जाने वाला है। इसके अनुसार इसमें नीधातुका न तथा भासका भ अवशिष्ट रह कर नभ हुआ ऐसा प्रतीत होता है। (2) ज्योतिषां प्रणयः अर्थात् यह ग्रहोंको गति देनेवाला है। इसके अनुसार इसमें नी धातुका योग है। (3) अपि वा भन एव स्याद्विपरीतस्य" अर्थात् भन शब्द ही विपरीत होकर वर्ण विपर्ययके द्वारा नभ हो गया है (4) ननभातीतिवा" अर्थात् वह नहीं प्रकाशित होता ऐसी बात नहीं प्रत्युत् वह प्रकाशित होता है। इसके अनुसार इसमें भा दीप्तौ धातुका योग है। इन्हीं निर्वचनोंसे द्यु लोकभी व्याख्यात हैं। प्रथम एवं चतुर्थ निर्वचन आकृति मूलक आधार पर आधारित हैं। द्वितीय निर्वचनका आधार भौगोलिक है। अर्थात्मक दृष्टिकोणसे सभी निर्वचन उपयुक्त हैं। डा0 वर्माके अनुसार इन निर्वचनोंमें यास्ककी अनुन्नत कल्पनाका दर्शन होता है ।200 नभका अर्थ आकाशभी होता है जो धुलोकके साम्यके आधार पर माना जा सकता है। यास्कके तृतीय निर्वचनमें भनको विपरीत कर नभ माना गया है। इस निर्वचनमें भन शब्दमें भा धातुका योग रहनेसे भनका अर्थ प्रकाशक माना जायगा तथा वही भन शब्द वर्ण विपर्ययके द्वारा नभके रूपमें स्वार्थमें ग्रहण किया गया जो आदित्यके अर्थमें सर्वथा उपयुक्त है। निर्वचन सिद्धान्तके अनुसार यह सर्वथा उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार णभ हिंसायाम् धातुसे असुन्202 प्रत्यय करने पर नभस् शब्द बनता है।
(94) रश्मिः - रश्मि किरण एवं घोड़ेकी रास (लगााम) को कहते है ।203 निरुक्तके अनुसार रश्मिर्यमनात् अर्थात् नियमन करनेके कारण रश्मि कहा जाता है। रास एवं किरण दोनों अर्थोमें यह युक्त है। घोड़ेको रास एवं जलको किरण नियमन करती है। इस निर्वचनमें धातुके साथ शब्दका ध्वन्यात्मक सम्बन्ध स्पष्ट प्रतीत नहीं होता। अतः अर्थ की संगति के लिए ही यास्क ने इस प्रकार का निर्वचन प्रस्तुत किया है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से इसे
१७५ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क